जनवरी का जाड़ा, यार ने खोल दिया नाड़ा-2

जनवरी का जाड़ा, यार ने खोल दिया नाड़ा-2

मेरी कामुक कहानी के पहले भाग
जनवरी का जाड़ा, यार ने खोल दिया नाड़ा-1
में अभी तक आपने पढ़ा कि अभी तक आपने पढ़ा कि मेरी सहेली निशा का भाई मुकेश जब कॉलेज के आखिरी दिन मुझे घर छोड़ने जा रहा था तो बीच रास्ते में गाड़ी रोककर वो पेशाब करने के बहाने मुझे अपना लिंग दिखाने की कोशिश करने लगा। मैं अच्छी तरह जानती थी कि वो ऐसा क्यों कर रहा है … लेकिन मुकेश को मैं भाई जैसा ही मानती थी। वो मेरे साथ ऐसी हरकत कैसे कर सकता था। मगर मैं गलत थी, देवेन्द्र से गुफ्तगू के बाद शायद वो मुझे दूसरी नज़र से देखने लगा था। सारे लड़के एक जैसे ही होते हैं। लड़की देखी और उस पर लाइन मारना शुरू …

ऐसा नहीं था कि मेरा किसी लड़के के साथ हमबदन होने का मन नहीं करता था, कई बार करता था और ये तो स्वाभाविक सी बातें हैं मगर जहां तक लड़कों का सवाल है तो उनको हर लड़की बस मनोरंजन का साधन लगती है।

मैं मुकेश की हरकत को देख चुकी थी और मेरी एक नज़र में ही उसका लिंग तनकर अलग से उसकी जींस में टाइट हो गया था। मेरे दिल में धक-धक होने लगी। मैंने दोबारा मुड़कर उसको नहीं देखा। मैं चुपचाप गर्दन नीचे करके बैठी रही, जैसे मुझे कुछ समझ आया ही न हो। वैसे भी मेरी कुंवारी चूत में मैंने अभी उंगली तक नहीं डाली थी तो लिंग डलवाने का तो सवाल ही नहीं था। और वो भी उस लड़के का … जिसके लिए मैं मन से भी तैयार नहीं हूँ।

वो कुछ देर वहीं सड़क के किनारे खड़ा रहा। लेकिन ज्यादा देर यूं दिन-दहाड़े बीच सड़क पर खड़े होकर अकेली लड़की के साथ रुकना उसने भी मुनासिब नहीं समझा और वो गाड़ी में आकर बैठ गया। उसने गाड़ी स्टार्ट की और बाकी दिनों से दोगुनी स्पीड से सड़क पर दौड़ा दी। वो शायद मेरी बेरुखी से नाराज़ हो गया था। मुझे भी महसूस हो रहा था।

मुझे घर छोड़कर वो वापस चला गया। कॉलेज की सर्दी की छुट्टियाँ हो गई थी इसलिए मैं भी छुट्टियों में पूरा आराम करना चाहती थी। पापा भी ठीक हो गए थे। सर्दियों के छोटे दिन जल्दी ही बीतने लगे। 15 दिन की छुट्टियाँ जैसे 5 दिनों में ही खत्म हो गई, 16 जनवरी से फिर कॉलेज खुलने वाला था। मूड भी फ्रेश था और कॉलेज की मस्ती को भी मिस कर रही थी।

कॉलेज खुलने के पहले दिन पापा ही मुझे छोड़ने गए और वही छुट्टी में लेने भी आ गए। मैं गेट के बाहर निकली तो वहीं पनवाड़ी की दुकान पर देवेन्द्र खड़ा दिखाई दिया। मैं सहम गई और चुपचाप पापा के पीछे स्कूटी पर जाकर बैठ गई। मैंने नज़र उठाकर भी नहीं देखा।
अभी तक देवेन्द्र और मेरे बीच बात भी नहीं हो पाई थी, मगर उसकी हरकतें देखकर अब मुझे डर लगने लगा था।

दूसरे दिन भी यही हुआ। तीसरे और चौथे दिन भी वही कहानी।
पांचवें दिन शाम को निशा मेरे घर पर आ गई। अब मेरे घरवाले उसे अच्छी तरह जानते थे।
निशा ने माँ से कहा- आंटी, 3 दिन बाद मेरा जन्मदिन है, मैं आप सबको न्यौता देने आई हूँ।
मां ने खुश होते हुए कहा- अरे वाह … बड़ी खुशी की बात है बेटी। हम ज़रूर आएँगे।

उसके बाद यहां-वहां की बातें होने लगीं और बातों-बातों में उसने पापा को टोक दिया- आप बेवजह परेशान होते हो अंकल, हम दोनों पहले की तरह ही साथ में जाया करेंगी। मेरा भी दिल नहीं लगता इसके बिना।
पहले तो पापा ने आना-कानी की लेकिन निशा के कई बार कहने पर वो मान गए। मैं भी चाहती थी कि पापा का कॉलेज तक पहुंचना ठीक नहीं है। क्योंकि देवेन्द्र वैसा नहीं निकला जैसा वो स्कूल टाइम में हुआ करता था। या फिर उसकी उफनती जवानी उससे ऐसी हरकतें करवा रही थी।

अगले दिन से मुकेश की गाड़ी फिर घर आने लगी मगर छुट्टी में देवेन्द्र वहीं खड़ा मिलता था। उस दिन जब मुकेश निशा को घर छोड़ने के बाद मुझे घर छोड़ने के लिए चला तो उसने पूछ ही लिया- आप उस लड़के को जानते हो क्या … जो उस दिन मेरी गाड़ी के पास आकर बात कर रहा था.
मैंने कहा- कौन, देवेन्द्र …?
मुकेश बोला- “इसका मतलब आप जानते हो, मैंने उसका नाम कब बताया था, बस लड़के के बारे में पूछा था.
मेरी चोरी पकड़ी गई, इसलिए मैंने भी अब उसके सवालों से भागना ठीक नहीं समझा।
मैंने कहा- हां, हम दोनों एक ही स्कूल में क्लासमेट रह चुके हैं।
इतना कहकर मैं चुप हो गई और मुकेश ने इसके आगे और कोई सवाल नहीं किया।

लेकिन चलती बात पर मैंने भी पूछ ही लिया- मगर भैया, आप उसको कैसे जानते हो?
मुकेश बोला- वो कॉलेज में मेरा क्लासमेट है, हम दोनों एक ही कॉलेज में पढ़ते हैं।
इससे पहले मैं कुछ और पूछती उसने कहा- वो आपसे बात करना चाहता है.
और उसने एक पर्ची पीछे मेरी तरफ बढ़ा दी।

मैंने पर्ची खोलकर देखा तो उस पर एक फोन नम्बर लिखा हुआ था।
मैं कहने ही वाली थी कि ये क्या है, इससे पहले वो बोल पड़ा- ये देवेन्द्र का नम्बर है, एक बार उससे बात कर लेना आप!
मैंने कोई जवाब नहीं दिया और तब तक घर आ गया।

मैं गाड़ी से उतरी, घर में घुसते ही सीधे अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर गिर गई।
मन में कौतूहल था और साथ ही डर भी। मैंने पर्ची को फिर से खोलकर देखा। मन किया कि फोन कर लूं … लेकिन फिर रुक गई।
मैंने वो पर्ची वहीं किताब के कवर के नीचे रख दी और बाथरूम में फ्रेश होने चली गई।

पेशाब करने के बाद जब सलवार का नाड़ा बांधने लगी तो ध्यान चूत पर गया। मैंने उसको हल्के से छुआ। उसकी चिपकी हुई फांकों को धीरे से अलग करके देखा। अंदर से लाल थी। लेकिन उनको छेड़ते हुए अच्छा लग रहा था। मैंने हल्के से चूत को मसाज करना शुरू कर दिया। मेरी सलवार मेरे हाथ से छूटकर नीचे मेरे पैरों में सिमट कर फर्श पर इकट्ठा हो गई। मैंने एक हाथ से चूत को मसाज देना जारी रखा और दूसरे हाथ से अपने चूचों को दबाने लगी। आज पहली बार मन कर रहा था कि किसी के मजबूत हाथों से चूचों को दबवाऊं और चूत को रगड़वाऊं।

तभी माँ ने आवाज़ लगा दी। मैं सम्भली और हाथ-मुंह धोकर बाथरूम से बाहर आ गई। मां ने कहा कि आकर चाय बना ले।
मैं दुपट्टा गले में डालकर कमरे से बाहर गई और किचन में जाकर चाय बनाने लगी। लेकिन चूत में कुछ गीलापन सा महसूस होने लगा। मैं चाय लेकर अपने कमरे में वापस आ गई। ध्यान को यहां-वहां बांटने की कोशिश की, कई बार उस किताब की तरफ नज़र गई जिसमें देवेन्द्र के फोन नम्बर की वो पर्ची रखी हुई थी।
कश्मकश में थी … फोन करूं या नहीं।
और आखिरकार मैंने पर्ची निकालकर उस पर लिखे नम्बर को डायल कर ही दिया।

दूसरी तरफ डायलर रिंग जाने लगी। 3-4 रिंग के बाद फोन उठा और उधर से एक भारी सी आवाज़ आई- हैल्लो!
मैंने कहा- देवेन्द्र?
वो बोला- कौन सी बोलै है?
“मैं रश्मि …” (बदला हुआ नाम)
“ओहो … सुणा दे माणस … के हाल हैं तेरे …” उसने पूछा।
“मैं ठीक हूं, तुम कैसे हो …”
“बस जी आपका फोन आ गया तो हम भी ठीक हो गे …”

“मुकेश ने तुमसे बात करने के लिए बोला था, कुछ काम था क्या मुझसे?”
“ना काम के गोबर पथवाना है तेरे पै …? मन्नै तै बात करन खातर फोन नम्बर दिया था, उस दिन तू बोली भी कोनी जब मैं बाइक लेके आया था।”
“मुझे शरम आ रही थी यार, सोचा अब स्कूल खत्म हुए इतने दिन हो गए हैं, क्या बात करूं … और साथ में मुकेश भी था, वो क्या सोचता अगर मैं कुछ बोलती तो।”
“मुकेश की चिन्ता मत कर तू, अपना ही भाई है वो। मिल ले एक दिन …” उसने पूछा।
मैंने कहा- तुम रोज़ कॉलेज के बार खड़े हुए दिखते तो हो …”
वो बोला- मैं तो खड़ा देख लिया, पर तन्नै देख कै मेरा कुछ और भी खड़ा हो जाता है …”

ये सुनते ही मैंने फोन काट दिया। धक-धक होने लगी। मुझे पता था वो अपने लिंग की बात कर रहा है।
कुछ देर पहले खुद मेरी चूत ने मुझे किसी मर्द की छुअन के लिए तड़पा दिया था लेकिन जब देवेन्द्र ने अपने मुंह से ये बात बोली तो मेरी हालत खराब हो गई।
उसने दोबारा फोन किया, लेकिन मैंने पिक नहीं किया। 3-4 मिस्ड कॉल होने के बाद उसका फोन आना बंद हो गया। शाम हो गई तो मैं डिनर की तैयारी करने लगी।

8 बजे तक सबने खाना खा लिया और मैं मम्मी-पापा के साथ हॉल में बैठकर टीवी सीरियल देख रही थी। तभी मेरा फोन दोबारा बजने लगा, स्क्रीन पर देवेन्द्र के नम्बर से इनकमिंग दिखा रहा था। मैंने कमरे में जाकर रूम का दरवाज़ा बंद कर लिया और हलो किया।
वो बोला- क्या कर रही है?
“बस खाना खाया है.”
“फेर मिल ले न एक दिन …?” उसने पूछा.
“अभी बात नहीं कर सकती, बाद में फिर कभी बात करेंगे। कहकर मैंने फोन रख दिया।

उसकी कॉल फिर से आने लगी। मैं डर रही थी कि कहीं घर वालों को शक न हो जाए कि मैं किसी लड़के से बात कर रही हूं। इसलिए मैंने फोन को स्विच ऑफ कर के एक तरफ रख दिया।
हॉल में जाकर दोबारा टीवी देखने लगी। जब सबको नींद आने लगी तो टीवी बंद होने के बाद सोने की तैयारी होने लगी।

10 बजे जब सोने के लिए बिस्तर पर लेटी तो देवेन्द्र के बारे में सोचने लगी। मेरे तने हुए स्तन और चूत का गीलापन कह रहा था ऐसा नौजवान फिर नहीं मिलेगा। मगर मन कह रहा था कि शादी से पहले अगर कुछ गड़बड़ हो गई तो घर वालों की इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। दोनों तरफ से सोचते-सोचते दिमाग खराब हो रहा था।
मैंने उसके ख़यालों के दलदल में फंसे मन को नैतिकता की रस्सी से खींच निकालने की बहुत कोशिश की लेकिन मैं उनमें और फंसती जा रही थी। सोचते-सोचते दिमाग थक गया और सुबह के अलार्म के साथ ही नींद खुली।

मैं नहा-धोकर कॉलेज के लिए तैयार हुई ही थी कि निशा आ पहुंची। मैंने किताबें उठाईं और दोनों घर से बाहर निकल गईं।

जाड़ों का मौसम अपने चरम पर था। धुंध इतनी कि गाड़ी कछुए की चाल चल रही थी। मैं सोच रही थी कि क्यों न निशा से इस बारे में बात करूं। क्या पता यह कुछ सलाह दे दे।
फिर सोचा कि रहने देती हूं, इसे वैसे भी बातें पचती नहीं हैं … कहीं सारे कॉलेज में ही चर्चा होने लगे। क्योंकि देवेन्द्र को कॉलेज के चक्कर लगाते कई दिन हो गए थे। और लगभग हर लड़की से उसकी नज़र एक न एक बार तो मिल ही गई होगी अब तक।

कॉलेज पहुंचकर क्लास शुरू हो गई, लेकिन पढ़ाई में ध्यान लगा नहीं। बैठी तो क्लास में थी लेकिन अंदर ही अंदर उधेड़-बुन चल रही थी।
पूरा दिन ऐसे ही निकल गया। शाम को छुट्टी में कॉलेज के गेट के बाहर निकली तो नज़र सीधी पनवाड़ी की दुकान पर गई। देवेन्द्र आज वहां नहीं था। मैंने सोचा कि आज तो मुसीबत टली। शायद मेरे कल के नेगेटिव रेस्पोन्स की वजह से वो समझ गया कि मैं ऐसा कुछ नहीं करना चाहती।

मन ही मन खुश तो रही थी कि लेकिन हल्का सा दुख भी था क्योंकि स्कूल टाइम में उसी देवेन्द्र के सपने मैं देखा करती थी। और आज जब वो खुद आगे बढ़ना चाहता है तो मेरे कदम मेरा साथ नहीं दे रहे। उसकी एक वजह ये भी थी कि वो मुझे थोड़ा लड़कीबाज़ लगा। स्कूल टाइम में उसकी जो छवि मेरे मन में थी वो उससे बहुत बहुत बदला बदला सा लगता था अब।

इतने में ही निशा के भाई मुकेश की गाड़ी कॉलेज से थोड़ी दूरी पर रुक कर हॉर्न देने लगी। निशा और मैं दोनों गाड़ी की तरफ बढ़ने लगे। पहले निशा बैठ गई और उसके पीछे-पीछे मैं भी अपना दुपट्टा संभालते हुए अंदर बैठते हुए दरवाज़ा बंद करने लगी तो नज़र ड्राइवर वाली सीट के साथ बैठे दूसरे इंसान पर गई।

मुकेश के साथ देवेन्द्र भी गाड़ी में बैठा था। उसे गाड़ी के अंदर देख मैं सहम गई। यह यहां भी पहुंच गया। मैंने निशा की तरफ देखा और कंधा मारकर देवेन्द्र की तरफ इशारा करते हुए आंखों ही आंखों में उससे पूछा कि ये यहां क्या कर रहा है?
निशा ने फिर भी मेरे इशारे का कोई जवाब नहीं दिया और वो चुपचाप अपने फोन में लग गई। मैंने सोचा कि मुकेश की वजह से कुछ नहीं बोल रही होगी। लेकिन घर जाने के बाद इससे पूछूंगी ज़रूर कि ये सब चल क्या रहा है.

इतने में गाड़ी चल पड़ी और जल्दी ही निशा का घर आ गया। लेकिन ये क्या … निशा के साथ-साथ मुकेश भी गाड़ी से उतर गया।
उतरते हुए मुकेश ने देवेन्द्र से कहा- मुझे कुछ देर में किसी ज़रूरी काम से बाहर जाना है इसलिए इनको (रश्मि को) घर छोड़कर तू गाड़ी मेरे घर वापस ले आइयो।

मैं चुपचाप बैठी रही और देवेन्द्र उतरकर सामने से घूमकर ड्राइवर वाली खिड़की खोलकर गाड़ी में बैठ गया और गाड़ी का एस्केलेटर दबा दिया। मैंने सामने वाले शीशे में देखा तो वो मुझे ही देख रहा था।
मैंने नज़र झुका ली।
इतने में वो बोल पड़ा- के होया …? स्कूल मैं तो बड़ी छुप-छुप के देख्या करती … इब इतनी शरम आने लगी तनै माणस?
मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया।

वो फिर बोला- अरै बात तो कर ले। मैं के खाऊं हूं तन्नै?
मैंने कहा- ये सब क्या ड्रामा चल रहा है। आज गाड़ी में तुम कैसे आ गए?
वो बोला- क्यूं … पसंद कोनी के तन्नै मैं …?

उसके इस सवाल का जवाब तो वो भी जानता था लेकिन वो मेरे मुंह से कहलवाना चाहता था … और इस वक्त मैंने इसको ये जतलाया कि मैं इसको पसंद करती हूं तो फिर ये ज़बरदस्ती करना शुरू न कर दे, इसलिए मैंने जवाब नहीं दिया, मैं चुप ही रही।

देवेन्द्र ने सफेद टाइट पैंट और गहरे केसरिया रंग की टी-शर्ट पहन रखी थी और उसके ऊपर ब्लेज़र डाला हुआ था। उसे देखकर कोई भी लड़की उस पर फ्लैट हो सकती थी लेकिन मैं अभी रिस्क नहीं लेना चाहती थी।
हम शहर से बाहर आ चुके थे और खेतों का एरिया शुरू हो गया था। शाम के 4 बजने को थे लेकिन सूरज जैसे आज निकला ही नहीं था। बाहर हल्की-हल्की धुएं जैसी पतली धुंध की चादर खेतों के ऊपर अभी से गिरना शुरू होने लगी थी।

जब आधे रास्ते में पहुंच गए तो देवेन्द्र ने गाड़ी धीमी करते हुए एक तरफ सड़क के किनारे रोक दी। वो गाड़ी से उतरा और दरवाज़ा बंद करते हुए कुछ पल सड़क पर बाहर खड़ा रहने के बाद पीछे वाली खिड़की खोलकर अंदर झांका और बोला- ज़रा उस तरफ सरक ले … मुझे कुछ बात करनी है तेरे से।

मैं सीट पर दूसरी तरफ सरक गई और उसने गाड़ी का दरवाज़ा बंद करके उस पर काली जालीदार चिपकने वाली स्क्रीन लगा दी। मेरे दूसरी तरफ खेत थे जहां दूर-दूर तक कोई इंसान नज़र नहीं आ रहा था और ढलती हुई शाम की वजह से सड़क पर भी कोई वाहन दिखाई नहीं दे रहा था।

देवेन्द्र आकर मेरी बगल में बैठ गया और उसने बिना मेरी इजाज़त के मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया और सीधा अपने सीने पर रखवा दिया। मुझे उसकी धड़कन अपनी हथेली पर धक-धक करती हुई महसूस हो रही थी। मैंने उसको नज़र उठाकर देखा तो वो भी मेरी आंखों में देखने लगा। उसकी आंखों में अजीब सी कशिश थी।
मेरे कुछ पूछने से पहले उसने बोल दिया- नाराज़ है के मेरे से?
मैंने नीचे देखते हुए ना में गर्दन हिला दी।

“तो फिर बात क्यों नहीं करती मुझसे?” उसने पूछा।
“कोई देख लेगा देवेन्द्र, चलो यहां से … ये सब ठीक नहीं है।” मैंने कहा.
वो बोला- दुनिया को मार गोली, तू ये बता मुझे पसंद करती है या नहीं?
मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया।

उसने मेरा हाथ अपने सीने से हटाकर अपनी जांघ पर रखवा लिया और अपने हाथों से मेरी ठुड्डी को उठाते हुए पूछने लगा- कुछ बोलेगी भी या मैं हवा से बातें कर रहा हूं?
उसने धीरे से मेरा हाथ अपनी जांघों पर ऊपर बढ़ाते हुए अपने लिंग पर रखवा दिया जो उसकी पैंट में पहले से ही तना हुआ था। मेरे हाथ रखते ही लिंग ने एक जोर का झटका दिया जिसके बाद मैंने हाथ हटवाना चाहा लेकिन उसने मेरा हाथ पकड़े रखा।
वो बोला- “रश्मि देख मेरी क्या हालत हो रही है … मान जा ना यार …”
मैंने कहा- यार, कोई देख लेगा … चलो यहां से, मुझे घर जाना है।
वो बोला- जब तक तू मेरी बात का जवाब नहीं देती, मैं आज तुझे घर नहीं जाने दूंगा।
“यार देवेन्द्र, मान जाओ ना …”
“तू भी तो नहीं मान रही …” उसने कहा।
“लेकिन … यार …”
इससे पहले मैं कुछ और बोलती उसने मेरी गर्दन पर पीछे मेरे बालों के नीचे हाथ डालकर अपनी तरफ खींचा और मेरे होंठों पर होंठ रखते हुए मुझे चूसने लगा।
साथ ही दूसरे हाथ से वो सीधा मेरे स्तनों को सूट के ऊपर से ही दबाने-सहलाने लगा।

मैंने छुड़ाना तो चाहा लेकिन उसकी पकड़ मजबूत थी और पहली बार उसके होंठों को चूसने में मुझे भी मज़ा सा आ रहा था। मैं उसकी जवानी के जोश की लहरों में धीरे-धीरे उसके साथ बहने लगी।

कहानी अगले भाग में जारी रहेगी.
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कहानी का अगला भाग: जनवरी का जाड़ा, यार ने खोल दिया नाड़ा-3

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