शीला का शील-3 – Antarvasna

शीला का शील-3 – Antarvasna

अगले दो दिन सामान्य गुज़रे… चाचा कोई नार्मल तो था नहीं कि जो चीज़ अच्छी लगती है वह सिर्फ अच्छा लगने के लिए रोज़ करे, बल्कि तभी करता था जब उसका शरीर इसकी ज़रूरत समझता था।

बस इस बीच वह सोचती रही थी कि क्या सही था क्या गलत… क्या नैतिक था और क्या अनैतिक और जो सही और नैतिक था तो क्यों था और गलत और अनैतिक था तो क्यों था।

हर गुज़रते दिन के साथ उसके अंदर एक दूसरी शीला का अस्तित्व पैदा होता जा रहा था जो बाग़ी थी, जो स्थापित मान्यताओं, परम्पराओं और मर्यादाओं से लड़ जाना चाहती थी, उन्हें तोड़ देना चाहती थी।

आखिर क्या दिया था इन सबने उसे… क्या सिर्फ इसलिए उसे अपने शरीर का सुख प्राप्त करने से रोका जा सकता था कि वह लोगों द्वारा अपेक्षित एक योग्य वधू के मानदंडों पर पूरी नहीं उतरती?

तो वह या उस जैसी हज़ारों लाखों ऐसी औरतें जो ऐसा अभिशप्त जीवन जीने पर मजबूर हैं, उन्हें अपनी इच्छाओं की तिलांजलि दे देनी चाहिये?

पर दिमाग के सोचे को क्या शरीर भी समझता है? समझता है तो क्यों ऐसी प्रतिक्रियाएं देता है जो सामाजिक नियमों के हिसाब से वर्जित हैं?

चौथे दिन सोने से पहले चाचा ने उसे पुकारा था।
और यह पुकार उसे ऐसी लगी थी जैसे उसके कान अस्वाभाविक तौर पर उसी की प्रतीक्षा कर रहे हों और इस पुकार के सुनते ही उसके बदन में एक झुरझुरी सी दौड़ गई हो।
उसके दिमाग का एक हिस्सा फिर ‘गलत-गलत’ की रट लगाने बैठ गया था पर उसने खुद को अपने शरीर की ज़रूरतों के हवाले कर दिया और जो अंग जैसी प्रतिक्रिया देता रहा वह स्वीकारती रही।

उसने बेअख़्तियारी की हालत में अपनी नाइटी उठा कर अपनी पैंटी भी उतार दी और अपने कमरे से निकल कर चाचे के कमरे में पहुंच गई।
चाचा का हाथ अब ठीक था और चाहता तो वह खुद ही अपने काम को अंजाम दे सकता था लेकिन अब उसे शीला के हाथ का चस्का लग चुका था और वह लिंग बाहर निकाले उसे आशा भरी दृष्टि से देख रहा था।

उसने दरवाज़ा बन्द कर दिया और चाचा के बैड के सरहाने स्थित अलमारी से वह सरसों का तेल निकाल लिया जो उसने परसों ही रखा था।
यह उसे किसी ने बताया नहीं था बल्कि उसका सहज ज्ञान था कि त्वचा से त्वचा की सूखी रगड़ जलन और रैशेज बना सकती थी। अगर तेल जैसी किसी चिकनी चीज़ का प्रयोग किया जाये तो ऐसा नहीं होगा।

अपने हाथ और दूसरे के हाथ में फर्क होता है… खुद के हाथ का पता होता है कितना दबाव देना है पर दूसरे के हाथ से पता नहीं चलता इसलिये चिकनाहट ज़रूरी थी।

वह चाचा को बिस्तर के एक साइड थोड़ा सरका के पूरी तरह पांव फैला कर उसके पास ही बैठ गई। उसने अपने सीधे हाथ में तेल लिया और उसे चाचा के लिंग पर इस तरह चुपड़ दिया कि वह एकदम चमकने लगा।
अभी वह अर्ध-उत्तेजित अवस्था में था लेकिन जैसे ही शीला के हाथों की गर्माहट और घर्षण मिला, उसमे खून भरने लगा और वह एकदम तन कर खड़ा हो गया।

शीला धीरे-धीरे उसे अपने हाथों से रगड़ने लगी।

साथ ही उसने अपने शरीर की इच्छा को सर्वोपरि रखते हुए अपनी नाइटी के ऊपरी बटन खोल लिये और उलटे हाथ को अंदर डाल कर अपने स्तनों को सहलाने लगी।

नरम दूधों पर हाथ की थोड़ी सख्त चुभन उसके अपने बदन में गर्माहट भरने लगी।
उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वक्षों का योनि से कोई इंटर-कनेक्शन हो… वह अपने स्तनों को मसल रही थी, चुचुकों को रगड़ रही थी, दबा रही थी और उत्तेजना भरी सरसराहट नीचे योनि में हो रही थी।

उसे चाचा की परवाह नहीं थी, चाचा को तो समझ ही नहीं थी कि वह क्या कर रही थी, उसे बस इतना पता था कि वह उसके लिंग को मसल रही थी और उसे बेहद सुखद लग रहा था।

जल्दी ही शीला के लिये अपने हाथ को रोके रखना मुश्किल हो गया।
उसने अपने चाचा के लिंग से हाथ हटा कर दोनों हाथों पर फिर से तेल चुपड़ा और सीधा हाथ चाचा के लिंग पर पहुंचाकर उल्टा हाथ, नीचे नाइटी उठाकर अपनी योनि तक पहुंचा दिया।

उसे अपने हाथ की आवरण रहित छुअन में भी अभूतपूर्व आनन्द का अनुभव हुआ। वह पूरी योनि को ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर सहलाने लगी, रगड़ने लगी।
इन पलों में उसके शरीर में कामवासना से भरी जो लहरें दौड़ीं तो उसकी आंखें मुंद गईं। बस यही दो चीजें दिमाग में थी कि उसके एक हाथ में चाचा का मजबूत लिंग है और दूसरा हाथ उसकी योनि को रगड़ दे रहा है।

अवचेतन के जाने किस अंधेरे से चुपके से यह कल्पना सामने आ खड़ी हुई कि योनि से रगड़ देने वाली चीज़ चाचा का लिंग है जो उसकी, भगनासा, भगोष्ठ और भगांकुर को अकूत आनन्द का अहसास दे रहा है।

ऐसी हालत में उसे यह कल्पना अतिरेक न लगी, अनैतिक या मर्यादा से इतर न महसूस हुई बल्कि उसके यौनानन्द में और बढ़ोत्तरी करने वाली चीज़ लगी।
और उसने इस कल्पना को स्वीकार कर लिया और उसी में खो गई।

फिर न उसे अपना होश रहा, न चाचा का, न कमरे की खुली खिड़की का… आँखें बंद किये बस इस कल्पना में जीने लग गई कि चाचा का लिंग उसे वो संतुष्टि दे रहा है जिसकी उसे भूख थी।

आँखें बन्द थीं और होंठों से दबी-दबी सिसकारियाँ निकल रही थीं, दोनों हाथ तेज़ी से अपना काम कर रहे थे और वासना में डूबे इन पलों की सुइयां घोड़े की रफ़्तार से दौड़ रही थीं।

फिर इस दौड़ का अंत हुआ…
उसने अपनी मुट्ठी में चाचा के लिंग को फूलते अनुभव किया और साथ ही चाचा के बदन की ऐंठन को भी और वह कल्पना से बाहर आ गई।
उसने आँखें खोल दीं और चाचा की एक कराह के साथ जैसे ही लिंग वीर्य की पिचकारी छोड़ने को हुआ उसने मुट्ठी भींच ली ताकि पिचकारी के उछलने का वेग कम हो जाये।
ऐसा ही हुआ और उछलने के बजाय वीर्य इस तरह निकला कि उसकी मुट्ठी से होता चाचा के पेट तक गया… पूर्वानुभव से उसे पता था कि उसे छोड़ना नहीं था।

वह हाथ फिर भी ऊपर नीचे करती रही मगर इस सख्ती से साथ कि निकलने वाली पिचकारी वेग न लेने पाये और चार पिचकारी में वह ठंडा पड़ गया।

पांचवी बार में बस बूँद निकली और उसने लिंग छोड़ दिया पर आज उसने कल की तरह अपनी उत्तेजना का अंत नहीं होने दिया था… उसे लग रहा था कि अभी उसके सफर का अंत नहीं हुआ।

हालांकि उसका उल्टा हाथ थक चुका था लेकिन चूंकि अब उसका सीधा हाथ फ्री हो गया तो उसने हाथ बदल लिया और चाचा के पैरों पे सर टिकाते हुए तेज़ी से योनि को रगड़ने लगी।

इस रगड़ में उसने एक चीज़ यह महसूस की थी कि भले पूरी योनि की रगड़ उसे मज़ा दे रही थी लेकिन जब उसकी उंगलियां योनि के ऊपरी सिरे को छूती थीं तो उत्तेजना एकदम बढ़ जाती थी।
यानी सबसे ज्यादा संवेदनशील पॉइंट ऊपर था… यह उसकी समझ में आ गया था।

और इसीलिये अब जब वह रगड़ रही थी तो पूरी योनि के बजाय सिर्फ ऊपर ही रगड़ रही थी और हर रगड़ उसे एक नई ऊंचाई तक लिये जा रही थी।

और फिर उसे ऐसा लगा जैसे कुछ निकलने वाला हो।
उसके दिमाग में सनसनाहट इतनी ज्यादा हो गई कि खुद पर कोई नियंत्रण ही न रहा… नसों में इतनी तेज़ खिंचाव पैदा हुआ कि वह एकदम कमान की तरह तन गई और होंठों से एक तेज़ ‘आह’ छूट गई।

उसे ऐसा लगा था जैसे उसकी योनि में मौजूद मांसपेशियों ने उसके अंतर में भरी ऊर्जा एकदम बाहर फेंक दी हो… वह बह चली हो… दिमाग सुन्न हो गया।

कुछ सेकेण्ड लगे संभलने में और दिमाग ठिकाने पर आया तो हड़बड़ा कर उठ बैठी।

चाचा को देखा जो अजीब सी नज़रों से उसकी बालों से ढकी योनि को देख रहा था… शायद समझने की कोशिश कर रहा था कि जैसे उस जगह पर उसके लिंग के रूप में एक अवयव निकला है, शीला के क्यों नहीं निकला।

उसने चाचा की तरफ पीठ करके अपनी टांगें फैलाई और नीचे देखने लगी… क्या निकला था… पेशाब था या कुछ और… उस वक़्त नाइटी का जो हिस्सा उसकी योनि के नीचे था वह थोड़ा सा भीगा हुआ था लेकिन वह उसे सूंघ कर भी यह तय न कर पाई कि वह क्या था?

बहरहाल आज पहली बार उसे जिस आनन्द की प्राप्ति हुई थी… उसे पहले कभी भी उसने नहीं महसूस किया था, स्वप्नदोष के समय सपने में जो भी मज़ा मिला हो, उसे चैतन्य अवस्था में याद करना सम्भव नहीं।

उसने एक भरपूर अंगड़ाई ली, उठी और सफाई में लग गई।

सफाई करके अपने कमरे में पहुंची तो उसे उस रोज़ ऐसी नींद आई कि सुबह भी जल्दी उठने को न हुआ।
सालों बाद उसने वह दिन ख़ुशी और संतुष्टि के साथ गुज़ारा…

शाम को चंदू की वजह से फिर मूड ख़राब हुआ… आज उसने आकृति को अकेले में पकड़ कर उसके वक्षों का ऐसा मर्दन किया था कि वह रोते हुए घर आई थी।

शर्म भी नहीं आती कमीने को… आकृति उससे आधी उम्र की थी, मगर उस कमीने की नियत का कोई ठिकाना नहीं था।

रात को बिस्तर के हवाले होते वक़्त उसके दिमाग से चंदू निकल गया और फिर शरीर की दबी कुचली इच्छाएं सर उठा कर उस पर हावी हो गईं।

वह बहुत देर चाचा की ‘ईया’ का इंतज़ार करती रही लेकिन चाचा ने पुकार न लगाई… वैसे भी उसे रोज़ यह हाजत नहीं होती थी तो उसने खुद ही यह करने का फैसला किया।
कमरे को बन्द करके और अंधेरा करके आज उसने अपने पूरे कपड़े उतार दिए।

तेल का प्रबंध उसने पहले ही कर रखा था… अपने दोनों हाथ तेल में नहला कर पहले वह अपने वक्षों को धीरे-धीरे सहलाने-दबाने लगी… चुचुकों को चुटकियों में पकड़ कर खींचने मसलने लगी।
धीरे-धीरे पारा चढ़ने लगा और वक्षों से पैदा होती उत्तेजना की लहरें योनि में उतरने लगीं।

जब उसे अपनी योनि में गीलापन महसूस हुआ तो उसने एक हाथ वहां पहुंचा लिया और उसे सहलाने रगड़ने लगी… कल के अनुभव से पता था कि मेन पॉइंट कहां था तो आज उसी पे ज्यादा फोकस कर रही थी।
कभी इस हाथ से कभी उस हाथ से और दूसरा हाथ वक्षों का मर्दन करता रहता।

करते-करते चरमोत्कर्ष की घड़ी आ पहुंची और हाथों में तेज़ी लाते हुए उसने खुद को उस बिंदु तक पहुंचा ही लिया जहां स्खलन का शिखर मौजूद था।
फिर सुकून के साथ बिना कपड़ों के ही सो गई।

अगले दो दिन यही सिलसिला चला।
और चौथे दिन रात को चाचा ने पुकार लगाई।

उसे ऐसा लगा जैसे उसके रोम-रोम में चिंगारियां छूट पड़ी हों… वह ऐसे खुश हो गई जैसे कोई मनमांगी मुराद मिल गई हो।

वह जितनी जल्द हो सकता था चाचा के कमरे में पहुंच गई और चाचा को भी उसे देख कर तसल्ली पड़ गई… उसका बाहर निकला लिंग जैसे उसी की प्रतीक्षा में था।

चाचे को किनारे सरकाते हुए वह उसके पास बैठ गई और हाथों में तेल लेकर एक हाथ से चाचा का लिंग मसलना शुरू किया और दूसरे हाथ से अपनी योनि।

जब आधा सफर तय हो चुका तो उसके ज़हन के किसी कोने ने सवाल किया कि ज़रूरी क्या था… चाचा का वीर्यपात या उसके लिंग को हाथ से रगड़ने की क्रिया?

उसके ज़हन ने ही इसका जवाब भी दिया कि ज़रूरी वीर्यपात था तो उसके लिए एक ही तरह की क्रिया की अनिवायर्ता क्यों? कोई दूसरा तरीका भी तो हो सकता था…
कोई दूसरा तरीका क्या?

वह सोचने लग गई… वीर्यपात का कारण घर्षण था जो उसके हाथ से मिलता था… अगर यह घर्षण किसी और तरीके से दिया जाये तो… किस तरीके से?
दिमाग ने ही एक तरीका सुझाया।

उसने चाचा को खींच के बीच में किया और अपने दोनों पैर उसके इधर-उधर रखते हुए उस पर ऐसे बैठी कि चाचा का लिंग उसके पेट पे लिटा दिया और उसकी जड़ की तरफ अपनी योनि टिका दी।
अपनी उंगलियों से योनि के दोनों होंठ ऐसे फैला दिये कि चाचा का लिंग अंदर की चिकनाहट और गर्माहट को महसूस कर सके और खुद उसकी योनि चाचा के गर्म और तेल से सने लिंग को महसूस कर सके।

फिर अपने नितंबों पर ज़ोर देते हुए आगे की तरफ वहां तक सरकी जहां तक चाचा के लिंग का बड़े आलू जैसा शिश्नमुंड था… और फिर वापस होते जड़ तक।
यहां इस बात का खास ध्यान उसने रखा था कि उसके बदन का बोझ उसके घुटनों पर ही रहे न कि चाचा के पेट पर जाए।

और चाचा आँखें खोले जिज्ञासा से देख रहा था कि वह क्या कर रही है… सामने से उसे शीला की योनि के ऊपर मौजूद काले घने बाल ही दिख रहे होंगे।
और योनि भी दिख जाती तो उसे क्या फर्क पड़ना था, उसे कोई समझ ही नहीं थी… पर वह अपने लिंग पर फिसलती खुली योनि के गर्माहट भरे घर्षण को साफ़ महसूस कर सकता था।

शायद यह उसके लिए सख्त हाथों से ज्यादा बेहतर अनुभव था। उसने सर तकिये से टिका कर आँखें बंद कर ली थीं और उस घर्षण में खो गया था।

जबकि यह घर्षण शीला को योनि के निचले सिरे से लेकर ऊपर भगांकुर तक लगातार मिल रहा था और इस किस्म की लज़्ज़त दे रहा था जिसे वह शब्दों में बयां नहीं कर सकती थी।

अपनी नाइटी उसे अवरोध लग रही थी… उसने नाइटी को नीचे से उठा कर पेट पर बांध लिया था, अब उसका कमर से नीचे का पूरा निचला धड़ अनावृत था।
उसने अपने हाथ अपनी जांघों पे टिका लिये थे और सर पीछे की तरफ ढलका कर सिसकारते हुए अपने नितंबों के सहारे योनि को तेज़ी से ऊपर-नीचे करने लगी थी।

उसे ऐसा लगा था जैसे उसके निचले हिस्से में कोई ज्वालामुखी पैदा हो गया हो, जिसमे भरा लावा उबालें मार रहा हो, किनारों को तोड़ कर बाहर निकल आना चाहता हो।

इस यौन-उत्तेजना ने उसके ज़हन के सारे दरवाज़े बंद कर दिए थे और शरीर का सारा नियंत्रण उसकी योनि के हाथ में आ गया था… इच्छाएं बलवती होती जा रही थीं।

इस घर्षण के बीच एक वक़्त ऐसा भी आया जब उसकी योनि के अंदर मौजूद सुराख अपने हक़ की मांग करने लगा। उसकी योनि का बार-बार दबता रगड़ता वह छेद जैसे उससे कह रहा हो कि मुझे भर दो।

इस बेचैनी और तड़प ने उसकी एकाग्रता में खलल पैदा कर दिया।

सेक्स रिलेटेड ज्यादातर चीज़ों से वह अनजान थी लेकिन इस बेसिक चीज़ से नहीं, उसने जानवरों को अपना लिंग योनि में घुसाते देखा था, जब भी उसे स्वप्नदोष हुआ था उसने योनि-संसर्ग देखा था।
उसे पता था लिंग का अंतिम ठिकाना योनि की गहराइयों में ही होता है।

और आज वह इस बाधा को भी पार कर जाने पर अड़ गई।
वह चाचा के ऊपर से उठ गई और खुद उसके लिंग को पकड़ कर सीधा कर लिया।
अब उसके ऊपर इस तरह बैठने की कोशिश की, कि लिंग उसकी योनि के छेद में उतर जाये… लेकिन चिकनाहट और फिसलन इतनी ज्यादा थी कि लिंग फिसल कर पीछे की दरार में चढ़ता चला गया।

उसने फिर आगे की तरफ रखते हुए छेद पर टिकाया और उस पर बैठने की कोशिश की तो इस बार वह फिसल कर उसके बालों से रगड़ खाता पेट की तरफ चला गया।
उसे झुंझलाहट होने लगी…

उसने कई बार कोशिश की लेकिन कहीं वह पीछे चला जाता तो कहीं ऊपर… चाचा भी उलझन में पड़ कर उसे देखने लगा था।
‘दीदी…’ तभी एक तेज़ आवाज़ गूंजी।

उसके ऊपर जैसे ढेर सी बर्फ आ पड़ी हो… ऐसा लगा जैसे किसी ने उसे दसवीं मंज़िल से नीचे फेक दिया हो… दिल धक से रह गया… सांस गले में फंस गई, ठंड के बावजूद पसीना छूट पड़ा।

उसने आवाज़ की दिशा में देखा… बिना पल्लों की खिड़की पर पड़ा पर्दा एक कोने से उठा हुआ था और एक चेहरा उसकी तरफ झांक रहा था।

‘दीदी!’ चेहरे ने फिर पुकारा तो उसकी समझ में आया कि वह रानो थी।

उसे एकदम जैसे करेंट सा लगा और वह चाचा के ऊपर से हट गई… चाचा की समझ में कुछ भी नहीं आया था और वह उलझन में पड़ा इधर उधर देख रहा था।

शीला ने अपनी नाइटी नीचे की और आगे बढ़ के दरवाज़ा खोल दिया…
‘दीदी।’

उसके होंठों के कोर कांपे मगर शब्द हलक में ही घुंट कर रह गए और वह एकदम आगे बढ़ कर अपने कमरे में घुस गई। दरवाज़ा उसने पीछे ‘भड़ाक’ से बन्द कर लिया।

उधर शीला के हटते ही चाचा उठ बैठा था और एकदम मुट्ठियाँ बिस्तर पर पटकते ‘ईया-ईया’ करने लगा था। रानो उलझन में पड़ गई कि इधर जाए या उधर।
फिर उसकी समझ में यही आया कि शीला समझदार है खुद को संभाल सकती है लेकिन चाचा को कोई समझ नहीं थी और ऐसी हालत में उसे सिर्फ वीर्यपात ही शांत कर सकता था।

उसका यौन-ज्ञान शीला से बेहतर था… उसने देर नहीं लगाई और लपक कर चाचा के पास पहुंच कर उसके तेल और शीला के कामरस से सने और चिकने हुए पड़े लिंग पर हाथ चलाने लगी।
चाचा शांत पड़ते-पड़ते फिर लेट गया और रानो ने उसे अंत तक पहुंचा के ही छोड़ा। फिर गीले कपड़े से उसकी सफाई करके वहां से निकल आई।

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