कोई और है

कोई और है

आमिर को अपनी बीवी किसी बस्ते में लिपटी हुई मजहबी किताब की तरह लगती थी जिसे हाथ लगाते वक्त सावधानी की जरूरत पड़ती है। उसके निकाह को दस साल हो गये थे लेकिन अभी तक वह आमिर से बहुत खुली नहीं थी। आमिर उसको पास बुलाता तो पहले इधर उधर झांककर इत्मिनान कर लेती कि कहीं कोई है तो नहीं….खासकर बच्चों की हाजिरी का उसको बहुत ख्याल रहता था। जब तक यकीन नहीं हो जाता कि बच्चे गहरी नीन्द सो चुके हैं वह आमिर को पास फटकने भी नहीं देती थी।

आमिर को शुरु शुरू में ज़ीनत के इस रवैये से बहुत उलझन महसूस हुई। उसको लगा उसके साथ हमबिस्तर होकर वह किसी जरूरी पाप का भागीदार हो रहा है लेकिन उसकी जिंदगी में जब सलमा दाखिल़ हुई तो उस पर भेद खुला कि बीवी और महबूबा में फर्क है और यह कि जिंदगी में दोनों की अपनी-अपनी अहमियत है।

सलमा आमिर की महबूबा थी और उसमें वही खासियतें थीं जो महबूबा में होती हैं। वह बोसे का जवाब बोसे से देती थी।

आमिर उसको अपनी बाहों में कसता तो वह उतनी ही गर्मजोशी दिखाती बल्कि अकसर आगोश में लेने में पहल कर बैठती और जब धीरे धीरे कानों में फुसफुसाती- जानी… कहाँ रहे इतने दिन…?

तो आमिर पर नशा सा छाने लगता था। आनन्द की ऐसी बारिश ज़ीनत के साथ कभी नसीब नहीं हुई थी। ज़ीनत उसको बन्द गठरी की तरह लगती थी जिसकी गांठें ढीली तो हो जाती थीं लेकिन पूरी तह खुलती नहीं थीं। सलमा इसके प्रतिकूल थी। वह बेडरूम में शेल्फ पर रखी हुई उस किताब की तरह थी जिसके पन्ने वह अपने तौर पर उलट सकता था और जब भी उसने सलमा की किताब उलटी पलटी थी प्रेम-रस का एक नया पन्ना ही उस पर खुला था।

सलमा कहती भी थी- यही फर्क होता है मेरी जान… बीवियाँ दाम्पत्य हकूक निभाती हैं और महबूबा खजा़ने लुटाती है।

सलमा की सोच थी कि औरत सिर्फ अपने आशिक की बाहों में ही खुद को पूरी तरह नुमाया करती है वरना वह फर्ज निभाती है। उसके प्रेम में फ़र्ज की भावना रहती है।

उसकी इस बात पर आमिर ने उसको एक बार टोका था।

“इसका मतलब है कि तुम अपने शौहर से प्यार नहीं करती हो?”

सलमा अपनी बाहें उसके गले में डालती हुई बोली थी,”मेरी जान…मैं शौहर से प्यार करना अपना फर्ज समझती हूँ और प्रेम फर्ज नहीं है।”

इस पर आमिर ने उसके लबों को चूम लिया,”फिर प्यार क्या है?”

“यह है प्यार… एक शौहर इस तरह अपनी बीवी को नहीं चूमता… प्यार मजबूरी नहीं है। प्यार का मतलब है आजादी…प्यार का मतलब है तमाम तकल्लुफ़ों से निजात पा जाना !”

“वाह ! क्या बात है !” आमिर हंसने लगा।

देखो हम कितने आजाद हैं… मियाँ-बीवी का रिश्ता पाबन्दी का रिश्ता है जिसमें मालिक कोई नहीं है दोनों ही दास हैं…दोनों का एक-दूसरे पर हक है और प्यार हक के दायरे में नहीं है।”

आमिर लाजवाब हो गया।

“एक बात बताऊं…?” यकायक सलमा मुस्कराई और फिर लजा गई।

“बताओ !”

“नहीं बताती !”

“बताओ न मेरी जान !” आमिर ने उसके गालों में चुटकी ली।

“जब मैं अपने खाविंद की बाहों में होती हूँ तो ध्यान तुम्हारा ही होता है। तुम्हारा ध्यान मेरे लिए उत्तेजक है….तब जाकर कहीं मैं…..!”

आमिर ने उसको बेइख्तियार पलटा लिया,”और मेरी बाहों में…?”

“तुम्हारी बाहों में मैं अपने को मुकम्मल आजाद महसूस करती हूँ….कोई रुकावट नहीं रहती। मैं होती हूँ… एक बहाव होता है… जैसे नदी की तेज धार होती है… और फिर… और फिर… बहाव भी नहीं होता… नदी भी नहीं होती… मैं भी नहीं होती !”

आमिर सलमा की इस बात पर अश-अश कर उठा। यह कहानी आप अन्तर्वासना.कॉंम पर पढ़ रहे हैं।

इन तमाम बातों के बावजूद ज़ीनत से उसके रिश्तों में भरपूर मिठास थी, बल्कि ज्यों ज्यों सलमा से उसका लगाव बढत़ा गया ज़ीनत की कद्र-व-कीमत भी उसके दिल में बढत़ी गई और वह महसूस करने लगा कि ज़ीनत लाज की मारी वफ़ादार औरत है, वह उतनी ही पाक है जितनी एक शौहर अपनी बीवी में देखना चाहता है। मसलन ज़ीनत का हमेशा नर्म लहजे में बातें करना… उसका हर हुक्म बजा लाना… सबको खिलाकर खुद आखिर में खाना ! ये सब एक पतिव्रता औरत के जरूरी गुण थे जो ज़ीनत में कूट कूट कर भरे थे।

आमिर को अकसर यह सोचकर हैरत हुई थी कि दस वर्षों के शादीशुदा जिन्दगी में ज़ीनत ने उससे कभी ऊंची आवाज में बात नहीं की थी ना ही अपने लिए ऐसी कोई मांग की थी जो आमिर को परेशानी में डालती। शादी के बाद शुरू शुरू के दिनों में उसने पोशाक के मामले में उसको यह मशवरा जरूर दिया था कि वो अपने लिए प्रिंस सूट सिलवाए।

आमिर ने महसूस किया था कि ज़ीनत की इच्छा थी कि वह उसको प्रिंस सूट में देखे लेकिन बंद गले का कोट उसको पसंद नहीं था। उसने उसकी इस बात पर कोई खास ध्यान नहीं दिया था और ज़ीनत ने भी जिद़ नहीं की थी।

उन्हीं दिनों वो अकसर गुड़ भर कर करेले की सब्जी़ भी बनाती थी। आमिर ने यह भी महसूस किया था कि ज़ीनत यह सब्जी बड़े चाव से बनाती है लेकिन करेले का स्वाद उसको पसंद नहीं था। उसने सब्जी़ एक दो बार सिर्फ चखकर छोड़ दी थी।

आमिर अपने शादीशुदा जिन्दगी से खुश था। ज़ीनत ने उसको तीन खूबसूरत बच्चे दिये थे। वो घर-गृहस्थी में होशियार थी। घर का हर छोटा-बड़ा काम खुद ही अंजाम देती थी। आमिर गृहस्थी का खर्च उसके हाथों में देकर बेफ़िक्र हो जाता था।

सलमा अकसर ज़ीनत के बारे में पूछती रहती थी लेकिन वह ज्य़ादा बातें करने से घबराता था। कभी कभी सलमा कोई चुभती हुई बात बोल जाती और आमिर को लगता वह उसके अहम को तोडऩे की कोशिश कर रही है। एक बार जब वह ज़ीनत की बड़ाई कर रहा था कि किस तरह घर के काम निपटाती है तो सलमा तड़ाक से बोल उठी थी,” उससे कहो हर वक्त दाई बनकर नहीं रहे… बीवी को कभी औरत बनकर भी रहना चाहिए !”

आमिर को यह बात लग गई थी। उसको एहसास हुआ था कि वाकई ज़ीनत हर वक्त काम में ही लगी रहती है। कभी फुर्सत के पलों में उसको पास बुलाता भी है तो काम का बहाना करके उठ जाती है। लेकिन फिर उसने अपने आप को यह कहकर समझाया था कि ज़ीनत दरअसल एक सलीके वाली औरत है और सलीकेदार औरतें इसी तरह घर के कामों में लगी रहती हैं।

एक दिन कपड़ों की खरीदारी के लिए आमिर घर से निकला। साथ में ज़ीनत भी थी। एक दो दुकान झांकने के बाद वो रेमंड हाउस में घुसना ही चाह रहा था कि ज़ीनत के कदम रुक गये। वो ठिठक कर खड़ी हो गई, उसका मुँह हैरत से खुल गया।

“क्या हुआ?” आमिर ने पूछा।

“यह तो सलमान भाई हैं !” ज़ीनत का चेहरा तमतमा रहा था।

आमिर ने सामने दुकान की ओर देखा- प्रिंस सूट में एक खूबसूरत आदमी काउंटर के करीब खड़ा था।

“यहाँ से चलिए…!” ज़ीनत आगे बढ़ती हुई बोली।

सरे राह चलते चलते आमिर ने मुड़कर एक बार फिर उस आदमी की तरफ देखा। ज़ीनत आगे दूसरी दुकान में घुस गई।

“कौन थे?”

“भाईजान के दोस्त थे।”

“अगर जान-पहचान है तो मिलने में क्या हर्ज है?”

“मुझे शर्म आती है।”

ज़ीनत के चेहरे पर पसीने की बूंदें फूट आई थीं। खरीदारी के बाद ज़ीनत ने दुकान से निकलते हुए एक दो बार गर्दन घुमाकर इधर उधर देखा। रेमंड हाउस से गुजऱते हुए आमिर ने एक बार उधर उचटती सी नजऱ डाली।

रास्ते में ज़ीनत सब्जी़ की दुकान पर रुकी। सब्जिय़ाँ और फल खरीदते हुए वे घर लौटे तो शाम हो गई थी। आमिर टी.वी. खोलकर बैठ गया और ज़ीनत खाना बनाने में लग गई।

खबरें सुनने के बाद आमिर खाने की मेज पर बैठा तो करेले की सब्जी़ देखकर उसको हैरत हुई। बहुत दिनों बाद ज़ीनत ने फिर गुडद़ार करेले बनाए थे। इस बार आमिर ने पूरी सब्जी खाई। खाने के बाद भी वो कुछ देर टी.वी. देखता रहा। फिर बिस्तर पर आ कर लेटा तो ज़ीनत एक तरफ चादर ओढ़ कर सोई हुई थी। आमिर को अजीब लगा। यह अंदाज ज़ीनत का नहीं था।

कुछ देर वह बगल़ में लेटा रहा फिर बत्ती बुझाई और ज़ीनत को धीरे से अपने पहलू में खींचा…वह उसके सीने से लग गई। आमिर को अपने सीने पर उसके शरीर की छुअन रहस्यपूर्ण लगी। उसको हैरत हुई कि उसका बदन पहले इतना गुदाज नहीं मालूम हुआ था। तब वह महसूस किए बिना नहीं रह सका कि ज़ीनत की सांसें तेज चल रही हैं।

कमरे के अंधेरे में उसने एक बार ज़ीनत के चेहरे को पढ़ने की कोशिश की और फिर उसको अपनी बाहों में भर लिया। अचानक आमिर ने महसूस किया कि ज़ीनत की सांसें और तेज होती जा रही हैं… और मानो सांस के हर उतार चढ़ाव के साथ बंद गठरी की गांठें अपने आप खुलने लगी हैं… खुलती जा रही हैं।

आमिर ने हैरत से उसकी तरफ देखा, एक पल के लिए उसको सलमा की याद आई और उसका चेहरा पसीने से भीग गया।

ज़ीनत के बदन पर उसकी बाहों का शिकंजा ढीला पड़ गया।

आमिर को लगा उसकी बाहों में ज़ीनत नहीं है… कोई और है… !!!

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