गुलदस्ता

गुलदस्ता

फ़ुलवा

बाथरूम से निकलते हुए कुसुम की नजर जब रीतेश के कमरे की ओर गई तो उसने देखा कि दरवाजा आधा खुला था और मिनी अपने को किसी से छुड़ाने की कोशिश कर रही थी। उसे लगा जैसे किसी चीज में उसका पाँव उलझ गया हो और वह उसे ही छुड़ा रही हो।

तभी मिनी तेजी से अपने कमरे की ओर आई और अन्दर चली गई।

रोज इसी समय मिनी चाय बनाती है, एक कप उसके कमरे में रख देती है, एक कप रीतेश के कमरे में रख कर वह एक कप चाय लेकर अपने कमरे में जाकर पढ़ने लगती है।

उसने उसके कमरे में झांका, मिनी किसी किताब में सर झुकाए थी लेकिन कुछ परेशान सी लग रही थी !

कहीं रीतेश ने कोई बदतमीजी तो नहीं की?

उसे शक ने घेर लिया फिर उसने सोचा- क्या घटिया बात सोच रही है वह ! कितनी भोली कितनी प्यारी है वह ! कितना ख्याल रखती है उसका ! लेकिन फिर भी अपनी तसल्ली के लिए रीतेश के कमरे में झांका और चाय पीने लगी।

असल में जब मिनी चाय रखने गई रीतेश ने उसे अपनी रजाई में खींच लेने की कोशिश की थी और वह बांह छुड़ाकर भागी थी। उधर कुसुम सोच रही थी मिनी नहीं आई होती तो उसे कितनी परेशानी होती ! कितना काम तो वह कर देती है !

कितना खोजा लेकिन कोई कामवाली नहीं ही मिली। वैसे एक कामवाली है जो झाडू पोँछा और बर्तन करती है। और काम करने को कोई तैयार नहीं थी।

नहीं, नहीं ! रीतेश तो मिनी को छोटी बच्ची ही समझते हैं, वे मिनी के साथ किसी तरह की बदतमीजी नहीं कर सकते ! अभी है ही मिनी?

उसे अपनी सोच ही बुरी लगी।

मिनी चाय पीने की कोशिश कर रही थी लेकिन उसके हाथ अभी भी कांप रहे थे और उसका मुंह शर्म से लाल हो रहा था। वह सोच रही थी अब वह बड़ी हो गई है शायद। शायद बड़े लोग इसी तरह महसूस करते होंगे?

जब कुसुम गर्भवती थी उसने मां को कहा था- मां, कोई कामवाली हो वहां, तो भेज देना ! यहाँ तो कोई मिलती ही नहीं है।

मां ने कहा- यहाँ भी यही हाल है, कइयों से पूछ चुकी हूँ। इन लोगों का दिमाग इतना चढ़ गया है कि सीधे मुँह बात भी नहीं करती हैं। आने को तो मैं ही आ जाती लेकिन मेरे पीछे यहाँ काम कौन करेगा यही सोचती हूँ। अच्छा ऐसा करती हूँ मिनी को भेज देती हूँ लेकिन उसके लिए एक ट्यूशन रख देना जिससे उसकी पढ़ाई का हर्ज ना हो। इसी वर्ष उसका इम्तहान है ना मैट्रिक का !

“ठीक है मम्मी !” कुसुम ने खुश होते हुए कहा- देखो ना रीतेश से तो कुछ होता नहीं है और ऑफिस में काम भी बहुत होता है। शाम को लौटते हैं तो बहुत थक जाते हैं। उनको कुछ भी कहना अच्छा नहीं लगता। सोहन के साथ भेज दो उसे। पड़ोस में जो वर्मा साहब हैं ना उनके यहाँ जो मास्टर आते हैं उन्हें ही कह दूंगी कि ठीक ढंग से उसकी तैयारी करा दें।

मां ने फिर कहा- मिनी का ध्यान रखना ! आजकल माहौल कितना खराब हो गया है ! अभी बहुत भोली है वह।

कुसुम ने कहा- उसकी चिंता मत करो मैं हूँ ना ! फिर आ गई थी मिनी। कोटद्वार से दिल्ली है ही कितनी दूर? सुबह चली और शाम तक पहुँच भी गई। इसी महीने कभी भी बच्चा हो सकता है, कम से कम चाय नाश्ता तो बना ही दे सकती है मिनी !

मिनी थी अठरह बरस की अलहड़ सी लड़की ! गोरी, फूल से गाल और कमर तक लहराते बाल।

उसने कहा- नमस्ते जीजू !

तो रीतेश कुछ देर तक मंत्र-मुग्ध हो उसे देखते रह गए फिर अपने को सामान्य दिखाने की कोशिश में एक धौल उसे जमाई और पूछा- चाकलेट चाहिए?

उसने शर्माते हुए हाँ में सर हिलाया। वह तो चाकलेट के नाम से ही खुश हो जाती थी और रीतेश हमेशा चाकलेट रखे रहता था।

मिनी दीदी से बातें करने लगी और रीतेश बाजार से कुछ सामान लाने निकल पड़े थे। चीनी, आलू सूजी, हल्दी यही तो कहा था कुसुम ने !

तभी रीतेश की नजर सामने के एक रेडीमेड की दुकान पर गई तो दिखे रंग बिरंगे टॉप। रीतेश ने सोचा अगर मिनी के लिए एक टॉप खरीद ले तो वह कितनी खुश हो जाएगी ! लाल रंग की सफेद छपाई की टॉप लेकर जब रीतेश खुशी खुशी जब घर पहुँचे तो मिनी खुशी से उछल पड़ी- आई लव यू जीजू !

और उछलती हुई उसे पहनने बाथरूम में घुस गई।

बाहर आकर उसने तीन चार चक्कर गोल-गोल लगाए और बहुत खुश हुई। उसकी खुशी देख कुसुम और रीतेश भी खुश हुए।

वह अपने शरीर में आए यौवन के चिह्नों से अनजान थी बहुत भोली उसे भी न पता चलता हो पर लोगों को तो पता था कि वह अब जवान हो गई है। उसके गाल इतने सुन्दर थे कि उसे देख रीतेश के दिल में एक तीव्र इच्छा जागती कि वह उसे चूम ले। उसकी अल्हड़ता उसको और भी सुन्दर बना देती। आज भी तो जैसे ही वह चाय रखकर जाने लगी थी रीतेश ने उसे पकड़ लिया था और उसके मुँह को चुम्बनों से भर दिया था।

पहले पहल मिनी को रीतेश का यह आचरण बहुत अजीब लगता लेकिन अब उसे अच्छा लगता था बहुत रोमांचक और अजीब सी बेचैनी और शर्म उसे घेर लेती। अब तो हरदम यही चाहती कि जीजू उसे बांहों में भरकर चूम लें। रीतेश को तो बहुत अच्छा लगता ही था यह सब। रीतेश को वह तो एकदम फूलों का गुलदस्ता लगती। उसे देखते ही उसकी सुध-बुध खो जाती थी। जाने कैसी सुगन्ध आती थी उसके शरीर से कि वह हमेशा मौके की तलाश में रहता।

रीतेश ने उसे कह रखा था कि किसी से कहना नहीं लेकिन मिनी की समझ में नहीं आता कि क्यों?

दीदी को क्यों नहीं अच्छा लगेगा यह नहीं समझ पाती थी !

मन को बहलाने के लिए वह कभी किताबों में सर खपाती कभी बच्चे के पास चली जाती और कभी टी वी देखती। लेकिन मन ही मन वह चाहती कि रीतेश आ जाए और उसे उसी तरह प्यार करें !

उस दिन बच्चा सो रहा था और कुसुम और वह टी वी देख रही थी।

टी वी में भी ऐसा ही कुछ चल रहा था- प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे से लिपटे थे और लव यू कह रहे थे।

अचानक वह चौंक पड़ी- तो जीजू को लव यू नहीं कहना चाहिए?

लेकिन जीजू ने कोई और मतलब तो नहीं निकाला था?

मैं तो चाहती हूँ कि जीजू यही समझें ! उसकी तो आदत ही थी लव यू कहने की।

चौंक पड़ी थी तो जीजू कहीं लव यू कहने का यही तो मतलब नहीं निकालते थे? वह शर्म से लाल हो उठी ! उस दिन वह रसोई में दीदी के लिए हलवा बना रही थी। यह पूछने के लिए कि कितनी चीनी डालूँ? जब दीदी के कमरे की ओर गई उसने देखा कि दीदी और जीजू आपस में लिपटे है और दीदी कह रही है- आई लव यू ! आई लव यू !

तो यही करते हैं पति पत्नी?

वह भौंचक्की सी खड़ी रह गई।

उसने सोचा अब कभी जीजू को लव यू नहीं कहेगी ! पता नहीं क्या सोचते होंगे?

दूसरे ही पल वह कुछ सोचती लौट आई थी। उसकी समझ में आने लगा था कि रीतेश उस प्यार करने लगे हैं और वह उन्हें। कैसी बेचैनी और घबराहट होती है रीतेश से मिलकर। नहीं ! वह उनके कमरे में नहीं जाएगी !

पर दूसरे ही पल वह उनसे मिलने के लिए बेचैन हो जाती। वह उन सुखद क्षणों को फिर से जी लेने को बेचैन हो उठती जब रीतेश ने उसे बांहों में भर लिया था और चुम्बनों से उसका मुंह भर दिया था।

फिर तो रोज दोनों ही इस चक्कर में रहने लगे थे। रीतेश को लगता था कि यह गलत है और अब तो एक बच्चा भी आ गया था दोनों के बीच में। लेकिन मन कहाँ मानता था? हर समय एक बेचैनी रहती थी। यह तो कुसुम के साथ भी अन्याय था।

जैसे ही कुसुम सो जाती, वह चुपके से रीतेश के कमरे में चली जाती और रीतेश तो उसकी प्रतीक्षा में रहते ही थे। कितना भी सोचे, उनका मन उन्हें बहकाता रहता था और उनके सारे संकल्प धरे रह जाते। मिनी तो फूलों की डाल जैसी ही लगती थी उन्हें। वैसी ही कोमल चमकती त्वचा और उलझे उलझे बाल और इन सबसे बेखबर वह फुदकती सी चलती जैसे नन्हीं गौरैया।

उसे देख किसी के लिए भी मन पर नियंत्रण रखना मुश्किल हो सकता था। हरदम हंसती, मुस्कुराती और अपने सौंदर्य के प्रति लापरवाह होना उसके आकर्षण को और भी बढ़ा देता था। रीतेश इस बात का हमेशा ध्यान रखता कि कुसुम को इस बात का बिल्कुल पता नहीं लगे। कभी-कभी व्याकुल होकर रीतेश सोचते क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मिनी हमेशा के लिए यहीं रह जाए?

लेकिन कुसुम को दुख भी नहीं पहुँचाना चाहते थे। वह तो कई बार कह चुकी थी कि मां को तकलीफ होती होगी, मिनी को वहाँ पहुँचा दें। लेकिन यह सोचते ही वे बेचैन हो जाते, फिर कहते- अरे चली जाएगी ना ! देखो तो कितना काम कर देती है, बच्चे को भी देखती है। उसकी परीक्षा के पहले पहुँचा दूंगा।

टीचर शाम चार बजे उसे आकर पढ़ा जाता। घर के कामों के बाद वह पढ़ती ही तो रहती है।

रीतेश अपने कमरे में लेटे लेटे अखबार पढ़ते रहते और जब समझते कि कुसुम सो गई होगी तो चुपचाप मिनी के कमरे में चले जाते। होंठों पर उंगली रखकर उसे चुप कराते।

रीतेश का इस तरह कमरे में आना उसे बांहों में भरना उसे बहुत अच्छा लगता। रीतेश के जाने के बाद भी वह उन सुखद अनुभूतियों में डूबी रहती।

रीतेश कभी-कभी सोचते वे उसे जाने ही नहीं देंगे। इतनी बेचैनी महसूस करते थे जब वे उसके जाने की बात सोचते थे। उसके बिना जीना उन्हें अब मुश्किल लगने लगा था, हर पल उन्हें मिनी का ही ध्यान रहता था, सोचते थे अगर कुसुम को पता चल गया तो क्या करेंगे?

फिर सोचते कुसुम कुछ कहेगी तो कहेंगे कि साथ रहना है तो रहो, नहीं तो जो जी चाहे करो !

लेकिन दूसरे ही पल वे सोचते- क्या कुसुम को रोता देख पाएंगे वे?

कितना मजबूर अपने को पाते थे वे आजकल। समाज में जो इज्जत है, वह दो कौड़ी की रह जाएगी।

फिर मिनी की अगर बदनामी हो जाएगी तो उसका तो जीवन ही बर्बाद हो जाएगा।

कोई हल नहीं मिलता और वे बेचैन हो जाते, उनकी आंखों से आंसू टपकने लगते।ऑफिस में बैठे-बैठे वे यही सब सोचे जा रहे थे। काम बहुत था ऑफिस में। आने में आज बहुत देर हो गई थी। अब तो शाम के सात बज रहे थे। कैसी उतावला था मन कि उड़कर जाने का करता था !

ज्यादा बेचैनी तो मिनी की एक झलक पाने के लिए थी। घर पहुँचते-पहुँचते अंधेरा तो हो गया था।

मेन गेट से जब वे अन्दर घुसे उन्होंने कुछ आहट सुनी तो इधर-उधर देखने लगे।

उन्होंने देखा कि वह मेंहदी की झाड़ जो काफी घनी हो गई थी जोरों से हिल रही थी लगा जैसे कोई उसके पीछे छुपा है।

रीतेश ने सोचा शायद उन्हें भ्रम हुआ होगा, फिर सोचा स्कूटर गराज में लगाकर फिर देखता हूँ।

तभी पड़ोस का मोन्टी मेन गेट से निकलता नजर आया।

उन्होंने पूछा- क्या बात है मोन्टी?

तो वह कुछ सहमा सा और डरा सा लगा उन्हें।

उसने कहा- मेरी गेंद उधर चली गई थी, मैं उसे ही लेने गया था।

लेकिन उसके बोलने के अंदाज से लग रहा था जैसे वह कुछ छुपा रहा हो।

अच्छा ! कोई बात नहीं ! रीतेश ने कहा और वे घर के अन्दर चले गए।

मिनी डाइनिंग टेबल पर सिर पकड़े बैठी थी।

रीतेश ने पूछा- क्या हुआ मिनी?

तो उसने खांसते हुए कहा- कुछ अटक गया था गले में !

उसका चेहरा लाल लग रहा था और एक अनजाना-सा भय उसके चेहरे पर पसर गया था।

तभी बाथरुम से निकली कुसुम ने लगभग रोते हुए रीतेश को पकड़ लिया और रोती हुई बोली- कहाँ रह गए थे? रोज तो चार बजे आ जाते है। कितना डर लग रहा था। उस पुल पर आज फिर एक्सीडेन्ट हुआ है, बहुत घबराहट हो रही थी।

रीतेश ने उसे गले से लगाते हुए कहा- आज काम बहुत था और रास्ते में भीड़ भी बहुत थी। आते आते देर हो गई।

अचानक रीतेश ने देखा मिनी के बाल कुछ ज्यादा ही उलझे थे और उसमें मेंहदी के कुछ पत्ते उलझे हुए थे।

अपने कमरे में जाते हुए उसने कुसुम से पूछा- यह मिनी जानती है मोन्टी को?

कुसुम ने कहा- हाँ कभी कभी गणित के कुछ सवाल नहीं समझ में आता है तो उसे बुला लेती है और वह आकर उसे समझा देता है। बस इतना ही जानती है।

लेकिन अब रीतेश को विश्वास हो गया कि उस झाड़ी के पीछे मिनी भी थी, नहीं तो मोन्टी इस तरह उसे देख घबराता क्यों?

उनके दिल को बहुत चोट पहुँची यह सोचकर कि मिनी उससे भी मिलती रहती है। कितनी सरलता से उन्हें धोखा देती रहती है और वे सोचते हैं कि सिर्फ वे ही उसे प्यार करते हैं। पता नहीं कहाँ तक पहुँचे हैं दोनों?

लगा जैसे किसी ने उनके विश्वास की नींव हिला दी हो। कितनी बेशर्म है मिनी। बहुत भोली बनने का नाटक करती रहती है? हम लोग भी तो उसे बच्ची ही समझते रहे।

मोन्टी इस बार आई एस सी की परीक्षा देने वाला था। तैयारी के लिए कालेज की छुट्टियाँ चल रही थी। फिर तो रोज ही उससे मिलती होगी जब मैं ऑफिस चला जाता हूँ। उसके बगल का मकान ही तो है वर्मा साहब का। बाड़ तो मेंहदी की बहुत ऊँची है पर मेन गेट से आने में कोई मुश्किल भी तो नहीं है। शायद मैंने जो अन्याय कुसुम के प्रति किया उसी की सजा भगवान ने दी है। बेकार मैं उसे इतना प्यार करता रहा। उनकी आंखें भर आई। मैं ही भटक गया था।

गलती तो मेरी ही थी और रीतेश बाथरूम में घुसकर रोने लगे।

लेकिन एक प्रश्न उन्हें बार बार रुला दे रहा था कि मिनी ने ऐसा क्यों किया?

दूसरे दिन अचानक ही वे यह जानने के लिए बीच में ही घर आ गए कि कहीं उन्हें धोखा तो नहीं हुआ था?

ऐसे किसी पर शक करना गलत है। लेकिन जब उसका स्कूटर गेट से अन्दर घुसा उसने देखा कि बगीचे के पिछले वाले भाग में मिनी और मोन्टी आपस में लिपटे थे। अब शक की कोई गुंजाइश नहीं थी। क्रोध और नफरत की एक लहर उठी थी मन में पर चुप रह गए। शायद वे अपने को संभाल नहीं लेते तो रो ही पड़ते।

आवाज सुनते ही मिनी दौड़ती हुई उसके पास आ गई- आज इस समय कैसे जीजू?

तो व्यंग्य से मुस्कुराते हुए रीतेश ने कहा- एक चोर को पकड़ना था।

वह चौंकी लेकिन दूसरे ही पल आश्वस्त हो गई, नहीं किसी ने नहीं देखा उसे।

और अगले ही रविवार को वे उसे मां के पास पहुँचा आए थे। लेकिन जब तब उसकी याद आ ही जाती, अनजाने ही कितना प्यार करने लगे थे उसे। वह थी भी तो ऐसी जैसे फूलों का गुलदस्ता। सुन्दर कोमल और प्यारी सी। कुछ ही दिनों के बाद दोनों के विवाह की वर्षगाँठ आई तो फूलों का एक बड़ा सा गुलदस्ता खरीद कर कुसुम को देने के लिए ले आए रीतेश पर उसे अपने शरीर से सटा कर बहुत देर चुपचाप रोते रहे।

ऐसी ही तो थी मिनी।

कहाँ भुला पाए थे वे उसे?

लगा जैसे मिनी ही उनके हाथों में गुलदस्ता बनी हुई है।

मन में एक बेचैनी होती कि सारी मर्यादाएं छोड़कर वे मिनी के पास ही चले जायें लेकिन जबरन मन को मारना पड़ता था क्या पता वह औरों से भी इसी प्रकार का संबंध बना ले? फिर तो दुखी होंगे ना? और उन्होंने अपने को संभाल लिया था।

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