नारी मन

नारी मन

फ़ुलवा

मेघा दफ़्तर से लम्बी छुट्टी पर गई थी पर अचानक महीने भर में ही छुट्टियाँ रद्द कर वह वापस आ गई, छुट्टियाँ अवैतनिक थी, अन्य छुट्टियाँ पहले ही खत्म हो चुकी थीं और घर वालों को उसकी तनख्वाह की आदत पड़ गई थी तो उसे वापस डयूटी पर आना पड़ा। इस बीच अपने पति को राजी कर वह कॉपर टी भी लगवा चुकी थी।

सहकर्मी मनीष को पता लगा तो :

“तो अब तो हमसे मिल लो।”

“नहीं !”

“क्यों?”

“टाइम ही कहाँ है !”

“लंच में?”

“यह कैसे हो पाएगा?”

“तो किसी दिन छुट्टी मार लेते हैं !”

“नहीं !”

“अब इसमें क्या दिक्कत है?”

“है ना !”

“क्या?”

“अब क्या बताऊँ?”

“बताओ नहीं, मिल लो।”

“अच्छा !”

“तो कब मिलोगी?”

“बताऊँगी !”

“कैसे?”

“फोन करूँगी।”

पर वह फिर गायब !

एक दिन मनीष ने उसे फोन किया, “तुम्हारा फोन तो आता ही रह गया?”

“अब क्या बताऊँ?”

“क्यों?”

“मैं नहीं मिल सकती !”

“हद है।”

“असल में मेरे हसबैंड शक्की हैं।”

“यह तो तुमने पहले नहीं बताया।”

“अब क्या बताती !”

“क्या बेवकूफी है?”

“असल में जब से कॉपर टी लगवाई है तबसे ज्यादा शक्की हो गए हैं।”

“यह सब मैं कुछ नहीं जानता। तुम किसी भी तरह मिलो। अब रहा नहीं जाता।”

“पर मैं नहीं मिल सकती !”

“क्यों?”

“मेरे हसबैंड दफ्तर में जब तब मुझे चेक करने आ जाते हैं। आप समझा करिए।”

“बड़ा दुष्ट है साला !”

“क्या कह रहे हैं आप?”

“कुछ नहीं, कुछ नहीं, बस एक बार दस मिनट के लिए सही तुम समय निकालो।”

“अच्छा बताऊँगी।”

दिन पर पर बीत गए मेघा ने कुछ नहीं बताया।

मनीष ने उसे एक दिन फिर घेरा और कहा, “आखिर कब समय निकालोगी, और कब बताओगी?”

“आप समझा कीजिए।”

“यह तो कोई बात नहीं हुई।”

“मैं खुद भी आपसे मिलना चाहती हूं।”

“गुड !” वह खुश होता हुआ बोला “अब तक तो चेंज का मन तुम्हारा भी करने लगा होगा?”

“हां, पर संभव नहीं है।”

“क्यों?”

“मेरे हसबैंड इधर बहुत शक्की हो गए हैं। देवर तक से बात करने में उन्हें शक हो जाता है।”

“लगता है उसे अपने पौरुष पर विश्वास नहीं है।”

“अब मैं क्या बताऊं?”

“अच्छा तुम मिलो तो मैं बताता हूं।”

“मैं नहीं मिल सकती। बिल्कुल नहीं।”

“ऐसा भी क्या है कि दस मिनट के लिए भी नहीं मिल सकती?”

“ऐसा ही है। आप प्लीज़ माइंड मत करिएगा।” वह बोली।

“नहीं बिल्कुल नहीं, बल्कि आई एम वेरी सॉरी। तुम मुझे माफ करना।” कह कर मनीष ने फोन रख दिया।

और अब !

मेघा मनीष की उम्मीद से उलट कोई एक महीने बाद हाजिर हो गई।

अनायास !

पर बोली कुछ नहीं।

मनीष ही बोला, “कहिए मेघा जी कैसे राह भूल गईं?”

“नहीं इधर से गुजर रही थी। सोचा आपसे भी मिलती चलूं।”

“जहे नसीब!”

“क्या?”

“कुछ नहीं।” मनीष समझ गया कि मेघा जहेनसीब का मतलब नहीं समझ पाई।

“नहीं, कुछ नसीब जैसा कह रहे थे आप।”

“अरे यही कि मेरी खुशकिस्मती जो ‘आप’ आईं।”

“ओह !”

“तो तुम क्या समझी थी?”

“आप कब क्या कह बैठें, कुछ ठिकाना है?”

“बिल्कुल है।”

वह चुप रही।

“कहीं चलें?”

“चलिए।”

“कहाँ चलें?”

“जहाँ आप चाहें।”

मेघा का “जहाँ आप चाहें?” कहना मनीष को उत्साहित कर गया, फ़िर भी पूछा, “पिक्चर?”

“पिक्चर नहीं देखती मैं।”

“तो?”

“वैसे ही कहीं चल कर बैठते हैं।”

“ठीक है।”

कह कर मनीष मेघा को लेकर पार्क चला गया।

पार्क में थोड़ी देर बैठते ही मेघा उकता गई। बोली, “कोई जगह नहीं मिली थी आपको?”

“क्यों?”

“बस यहाँ से चलिए !”

“कहाँ?”

“कहीं भी ! पर यहाँ नहीं।” कहती हुई वह उठ खड़ी हुई।

“पुराना किला चलें?”

“चलिए।”

“यहां पार्क में तुम्हें क्या दिक्कत हो रही थी?” रास्ते में मनीष ने मेघा से पूछा।

“देख नहीं रहे थे। वहाँ कितनी फेमिलीज़ थीं।”

“तो?”

“कोई जान पहचान का मिल जाता, आपके साथ देख लेता तो?”

“ओह !”

मनीष समझ गया था कि अब मेघा उससे दूर नहीं है।

दोनों पुराना किला पहुँच तो गए पर बैठने की कोई कायदे की जगह नहीं मिली। फिर भी दोनों टूटी दीवार पर बैठ गए। मेघा पहले तो बेसिर पैर की बतियाती रही। इस बीच मनीष ने उसकी बगल में आकर बैठने को दो-तीन बार कहा पर वह नहीं मानी। बल्कि छिटक कर और दूर हो गई।

बहुत कहने पर बोली, “ठीक हूँ यहीं।”

मनीष उससे प्यार, इसरार और सेक्स की बातें करना चाहता था। वह उसे बढ़ कर चूम लेना चाहता था।

मनीष ने बढ़ कर मेघा को अचानक चूम लिया। मनीष के चूमते ही वह उठ कर खड़ी हो गई, बोली, “यह क्या हरकत है?”

“मैं समझा नहीं।” मनीष अनजान बन गया।

“बड़े भोले बन रहे हैं?”

“क्या मतलब?”

“मतलब यह है कि आपने मुझे चूमा क्यों?”

“क्या कोई अपराध कर दिया है?”

“हाँ अपराध है।”

“चूमना अपराध नहीं है।”

“चूमना अपराध नहीं है पर जबरदस्ती चूमना गलत है, अपराध है।”

“मैंने जबरदस्ती नहीं की।”

“तो क्या मैंने कहा कि आप मुझे चूम लीजिए।”

“नहीं।”

“तो जबरदस्ती नहीं हुई यह?”

“क्या कोई लड़की किसी से कहती है कि आओ मुझे चूमो। या तुम मुझसे कहती?”

“तो क्या मैं आपको ऐसी लगती हूँ कि आप सरेआम मेरे साथ जो चाहे हरकत करें? आपने चूमा क्यों?”

“यूँ ही !”

“यह क्या बात हुई?”

“अच्छा चलो बात खत्म हुई।”

“बात खत्म नहीं हुई।”

“तो?”

“आइंदा नोट कर लीजिए, मेरे साथ अब दोबारा ऐसी हरकत मत कीजिएगा।”

“क्यों?” मनीष की आंखों में शरारत थी और इसरार भी।

“अब बता दिया आपको ! और आपने ने फिर दुबारा ऐसा कुछ किया तो न आप सो बोलूँगी, न फिर कभी मिलूँगी।”

“अच्छा?”

“हाँ, मजाक मत समझिएगा।”

“कहीं और चल कर बैठें?” मनीष ने मेघा से पूछा।

“कहाँ?” वह धूप से बिलबिलाती हुई बोली।

“कहीं किसी घने पेड़ के नीचे !” मनीष बहकता और दहकता हुआ बोला।

“तो चलिए !” वह उठती हुई बोली।

“इस घने पेड़ की छांव कम पड़ रही है न?”

“नहीं, ठीक तो है। पूरी घनी छांव है और ठंडी भी।” वह बोली।

“लेकिन यह छांव मेरे लिए कम पड़ रही है।” वह बुदबुदाया, “अगर तुम्हारी इजाजत मिल जाए तो इस छांव में थोड़ा इजाफा कर लूं?”

“इजाजत की क्या जरूरत है? आप इजाफा कर लीजिए।”

“इजाजत की जरूरत है !” मनीष अपने पुराने मुहावरे पर वापस आते हुए खुसफुसाया, “अगर तुम बुरा न मानो तो इस घने पेड़ की छांव में तुम्हारी जुल्फों की छांव भी जोड़ लूँ? ओढ़ लूँ तुम्हारी जुल्फों को?”

“क्या मतलब है आपका?” तुम फिर शुरू हो गए?”

“इसीलिए तो इजाजत मांगी।” वह भावुकता में भीग कर बोला, “प्लीज बुरा मत मानना। यह तो तुम्हारी खुशी पर है। तुम्हारी पसंद पर है।”

“आपकी यह बेचारगी देखी नहीं जाती !” वह अपने बालों के रबर बैंड खोलती हुई, बालों को झटका देती हुई बोली।

मनीष उसके बालों में अपना चेहरा छुपाते हुए बोला, “वक्त खराब करने से क्या फायदा?”

वह मनीष की सांसों में अपनी सांसें मिलाती हुई खुसफुसाई, “पर आज बस इतना ही !”

“इतना ही क्यों?” मनीष बोला, “तुम ज्यादा इफ-बट मत करना ! और थोड़ा-सा मुझ पर भरोसा करना !” कह कर मनीष उसकी देह जहाँ तहाँ टटोलने लगा, चुपके-चुपके।

थोड़ी देर बाद उसे लगा कि अब बात बिगड़ेगी नहीं, तब वह वहाँ चौकीदार के पास गया, उसे सौ रुपए पकड़ाते हुए बोला, “मेम साहब की तबीयत जरा खराब हो गई है, कमरा खोल दो अभी थोड़ी देर आराम करके चली जाएंगी।”

“ठीक है साहब !” कह कर उसने कमरा खोल दिया और, “कुछ चाहिए तो बताइएगा हजूर !”

कह कर मूछों में मुस्कुराता हुआ वह चला गया।

उसके जाते ही दरवाजा बंद करके मनीष उस पर बुरी तरह टूट पड़ा।

मेघा परेशान होकर बोली, “क्यों जानवर बने जा रहे हैं?”

“क्या बेवकूफी की बात करती हो?” वह बोला, “थोड़ी देर चुप रह सको तो मजा आएगा!” कह कर वह उसके कपड़े उतारने लगा।

“यह क्या कर रहे हैं आप?” कहती हुई वह उसका हाथ पकड़ कर रोकने लगी।

“कुछ करूँगा नहीं, बस कमीज खुद ही तुम उतार लो। नहीं जल्दबाजी से फट-फटा गई तो मुश्किल होगी।”

“बस कमीज ही उतारूँगी, कुछ और नहीं।” वह खुसफुसाई।

“ठीक है। पर जल्दी उतारो !” मनीष हड़बड़ाता हुआ बोला। कमीज उतारने के बाद वह उसकी ब्रा भी उतारने लगा तो वह फिर उसका हाथ पकड़ती हुई बोली, “आपने सिर्फ कमीज के लिए कहा था !”

“क्या डिस्टर्ब करती हो। ब्रा भी कमीज के साथ रहती है। यह भी उतार दोगी तो क्या बिगड़ जाएगा?” वह ब्रा की हुक खोलता हुआ बोला। वह उसकी ब्रा बाहों से बाहर करता कि उसने कूद कर जमीन पर बिछी मिली सी चादर लपेट ली। तो भी उसने ब्रा बाहर कर दी और उसके उरोजों से खेलने, चूसने और रगड़ने लगा तो वह उत्तेजित होने लगी।

बावजूद इसके “कुछ और नहीं, कुछ और नहीं !” की रट बड़ी देर तक लगाए रही।

अंतत: मनीष का धैर्य जवाब दे गया और उसने लगभग जबरदस्ती उसकी सलवार खोल दी। तब उसने देखा कि “कुछ और नहीं, कुछ और नहीं” की रट भले लगा रही थी पर वह इतना बह चुकी थी कि उसकी पैंटी और सलवार बुरी तरह भीग चुकी थी।

फिर तो मनीष जैसे पागल हो गया। और उसके ‘नहीं-नहीं’ कहते रहने के बावजूद वह उसके ऊपर आकर लेट गया, बोला, “अपना काम हो गया और मुझसे नहीं-नहीं कर रही हो।”

कह कर उसकी दोनों टांगें उठाईं और शुरू हो गया। थोड़ी देर बाद दोनों पसीने से लथपथ निढाल पड़े थे। तभी वह उससे चिपटती हुई बोली, “आखिर अपनी कर ही ली?”

“थोड़ा चुप रहकर देह के नेह को मन में सींच कर महसूस करो।”

“अब यहां से चलें?” मेघा ने पूछा।

“मन तो अभी नहीं हो रहा है।” कह कर मनीष आंखें बंद कर उसके बाल और नितंब सहलाने लगा। थोड़ी देर बाद वह उसके उरोजों को चाटने चूसने लगा।

“तुम्हारा पेट जल्दी से नहीं भरता?”

“किस चीज से?”

“सेक्स से।”

“पेट सेक्स से नहीं, भोजन और पानी से भरता है।”

“आई मीन, दिल नहीं भरता?”

“किससे? सेक्स से?”

“तुम भी ना !”

मनीष का हाथ मेघा की जांघों के बीच पहुंच गया। जिसे मेघा ने दोनों जांघों में हलके से दबा लिया और बोली, “इसके अलावा भी तुम्हें कुछ आता है?”

अब मनीष ने मेघा की जांघ में चिकोटी काटी, उसकी जांघें खुली, दूसरे हाथ से उसके बालों को सहलाया और…

जल्दी ही दोनों उत्तेजित होकर फिर से हांफने लगे।

शाम हो गई थी पर जाने की जल्दी नहीं थी। उधर सूरज ढल कर लाल हो गया था और इधर मेघा की देह महक रही थी। मनीष उसकी देह के नेह में नत था !

जब वह निढाल हो गया तब भी वह उसकी बांहों में कसमसाती रही और, ‘एक बार और- और एक बार !’ फुसफुसाती रही।

#नर #मन