अन्तहीन कसक-1
अन्तर्वासना के पाठकों को मेरा नमस्कार!
मेरा नाम उदित सिंह भदौरिया है, इस समय मैं उत्तर प्रदेश के एक मेडिकल कॉलेज में जूनियर रेजिडेंट हूँ।
मैं अन्तर्वासना का पिछले एक साल से नियमित पाठक हूँ, मूल रूप से मैं इटावा उत्तर प्रदेश का रहने वाला हूँ।
दोस्तो, अन्तर्वासना की कहानियाँ पढ़ने के बाद मैंने सोचा कि मुझे भी अपने जीवन की एक सच्ची घटना आप सबके सामने रखनी चाहिए, क्योंकि सब की भी कहानियाँ मैंने पढ़ी हैं और हमारी यह प्यारी साईट भी तो हमारी कहानियों से ही चलती है।
अस्तु मूल घटना प्रारम्भ करता हूँ।
दोस्तो, यह घटना करीब 9 साल पहले की है, उस समय मेरी उम्र 20 साल की थी, मेरा कद 5’10’, रंग गेहुआं तथा शरीर मजबूत है, उस समय तक मैंने कभी भी सेक्स नहीं किया था, हाँ ब्लू फ़िल्में काफी देखीं थीं और मुट्ठ मारकर अपने लण्ड को शांत किया करता था।
मैं कानपुर में MBBS की पढ़ाई करने के लिए आया हुआ था।
प्रथम वर्ष के छात्रों को रैगिंग से बचाने के लिए कॉलेज प्रशासन ने हम लोगों को हॉस्टल न देने का फैसला किया था क्योंकि सीनियर्स हॉस्टल आकर जूनियर छात्रों को परेशान किया करते थे।
इसलिए मजबूरन मुझे भी बाहर कमरा लेना पड़ा।
मेरी किसी से दोस्ती नहीं हुई थी इसलिए अकेले ही रहना था।
कानपुर के काकादेव मोहल्ले में मेरा एक पुराना दोस्त रहता था, मैंने उसे ही कमरा देखने का कार्यभार सौंपा, जब तक कमरा नहीं मिला तब तक मैं उसी के यहाँ रुका रहा।
एक दिन हम लोगों को एक अच्छा कमरा मिल गया, कमरा दूसरी मंजिल पर था, मकान मालिक एक बुजुर्ग दम्पति थे, ऊपर का कमरा होने की वजह से शान्ति थी और सुविधा भी अच्छी थी, लिहाज़ा मैंने वह कमरा ले लिया।
मैं अपने मकान मालिक को बाबूजी कहता था क्योंकि वे उम्र में मेरे पापा से भी बड़े थे।
अगले दो दिन तक पूरे घर में सिवाय उन लोगों के मैंने और किसी को नहीं देखा।
एक दिन वो इलेक्ट्रीशियन को लेकर मेरे कमरे में आये, क्योंकि मेरा पंखा नहीं चल रहा था।
जुलाई का महीना था और उमस भरी गर्मी पड़ रही थी।
जब इलेक्ट्रीशियन चला गया तो वे मेरे कमरे में बैठ गए और मेरे घर के बारे में पूछने लगे।
मैंने भी उनसे बातों बातों में पूछ लिया कि क्या वो घर में अकेले ही रहते हैं।
इस पर उन्होंने बताया कि उनके तीन बच्चे हैं, सबसे बड़ा बेटा और बहू भुवनेश्वर में रहते हैं, उससे छोटा बेटा और बहू उनके पास रहते हैं, छोटा बेटा नगर निगम में काम करता था, सबसे छोटी बेटी गाजियाबाद से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही थी।
उन्होंने बताया की इस समय छोटा बेटा और बहू लखनऊ छोटी बहू के भाई की शादी में गए हैं।
थोड़ी बहुत बातचीत के बाद वो चले गए।
दो तीन दिनों के बाद की बात है, मैं शाम को साढ़े पाँच बजे कॉलेज से वापस आया, मैंने गेट खुलवाने के लिए घण्टी बजाई।
रोज आंटी जी गेट खोलती थीं लेकिन उस दिन ज्यों ही गेट खुला मैं दंग रह गया।
क्या बला की खूबसूरत आकृति थी सामने!!
एकदम दूध सा सफ़ेद रंग, गुलाबी होंठ, बड़ी बड़ी भूरी आँखें, माथे से लेकर नीचे गले तक लटकती घुंघराली लटें…
मैं मंत्रमुग्ध सा बस उसे ही देखता रहा।
मैं समझ गया कि यही इनकी छोटी बहू है, खैर मेरी तंद्रा तब टूटी जब उसने कहा- कहिये, क्या काम है?
मैंने कहा- जी मैं यहीं रहता हूँ ऊपर!
‘ओह ! सॉरी, अन्दर आ जाइये।’ उसने कहा।
मैं सीढ़ियाँ चढ़ते हुए बस उसी के बारे में सोचता रहा, कितनी खूबसूरत थी वो !! उसने दुपट्टा सिर पर ले रखा था जिससे उसकी चूचियों के उभार साफ़ दिख रहे थे, बहुत बड़े थे उसके उरोज, और क्या मस्त दरार थी !
सच में अभी भी वो दृश्य याद करके लण्ड खड़ा हो जाता है।
मैं मन ही मन खुश हो रहा था की चलो अब यदा कदा आँख सेंकने का जुगाड़ हो गया, उस रात को मैंने उसी के नाम का सड़का मारा और सो गया।
अगले दिन सुबह नहाने के बाद मैं कपड़े फैलाने लगा तो मैंने दखा कि 32-35 साल का एक आदमी फ़ोन पर बात कर रहा है, मैं समझ गया कि यही मकान मालिक का छोटा लड़का है।
मैं कपड़े फैलाकर जाने लगा तो पीछे से आवाज आई- अरे सुनो यार!
मैं उसकी ओर मुड़ा तो उसने पूछा- आप ही नए किरायेदार हो?
मैंने कहा- जी हाँ! आप कौन?
उसने कहा- मैं आपका मकान मालिक हूँ।
फिर उसने मेरे बारे में पूछा, मसलन मैं क्या करता हूँ और कहाँ से हूँ वगैरह।
फिर उसके बाद थोड़ी बहुत बातचीत हुई फिर वो नीचे चला गया और मैं कॉलेज के लिए तैयार होने लगा।
दोस्तो, भाभी जितनी हसीं थी, उतना ही बेकार उसका पति था, बिल्कुल पतला दुबला, हाँ लम्बाई ठीक थी, गालों में गड्ढे पड़ चुके थे, आँखों के चारों और काले घेरे, कुल मिलाकर यह तो उसका नौकर भी नहीं लगता था।
मुझे मन ही मन भाभी पर तरस आया।
उसका नाम विनोद था, तथा भाभी का नाम शर्मिष्ठा था, उनके सास ससुर उन्हें शमीं बुलाते थे।
दो दिन बाद रविवार था और मेरी छुट्टी थी, मैं फ्री था, जुलाई का महीना था उमस भरी गर्मी पड़ रही थी, शाम का वक्त था और लाइट भी चली गई थी इसलिए घर के सारे लोग छत पर आ गए थे।
मैं भी बाहर निकला, विनोद ने मुझे हाय किया और मुझसे बातें करने लगा लेकिन मेरी आँखें तो बस शर्मिष्ठा को ढूंढ रहीं थी, उसका कहीं पता न था।
वो शायद नीचे ही थी, खैर थोड़ी देर में रात हो गई और सब लोग घर में नीचे चले गए, मैं भी कमरे में चला आया।
अगले दिन सुबह मैं ब्रश कर रहा था तो भाभी छत पर कपड़े डालने आई, वो नहाकर आई थी, उसकी सलवार उसके चूतड़ों से चिपकी थी और कमीज चूतड़ों की दरार में घुसी थी।
मैं पागल हो रहा था। यह कहानी आप अन्तर्वासना डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं !
उसके बाल खुले थे, मैं उसे देख रहा था, फिर वो अचानक पलटी और बोली- यह वाश बेसिन जाम हो जाता है, पापा से बोलकर सही करा लीजिये..
मैं हड़बड़ा गया मेरे मुँह से निकला- अररे !! हाँ, वो बोला था भाभी।
मेरे ऐसे बोलने से वो मुस्कुराने लगी।
हाय ! मेरी तो जैसे जान ही निकल गई..
फिर वो बोली- आप क्या कर रहे हैं?
मैंने कहा- भाभी मैं MBBS कर रहा हूँ GSVM मेडिकल कॉलेज से..
वो बोली- अच्छा तो आप डॉक्टर साहब हैं।
मैंने कहा- अरे नहीं भाभी, अभी तो साढ़े पाँच साल पढ़ना है।
फिर मेरे बारे में थोड़ा बहुत पूछकर वो चली गई, मेरी ख़ुशी का ठिकाना न था मैं तो मानो सातवें आसमान पर था, मैं ख़ुशी ख़ुशी कॉलेज गया।
फिर तो यह रोज का सिलसिला हो गया, वो सुबह छत पर आती और हम दोनों खूब बातें करते, मैं उसे कॉलेज की बातें बताता, जोक सुनाता मिमिक्री करता, वो खूब हंसती।
दोस्तो, उसके चेहरे पर हमेशा एक उदासी सी रहती थी, अपने सास ससुर से ज्यादा बोलती भी नहीं थी।
हाँ मुझसे काफी बातें करती थी।
उसने मुझे बताया कि वो भी डॉक्टर बनना चाहती थी लेकिन किसी कारण से वो पढ़ाई आगे जारी नहीं रख सकी, इसी कारण से वो मुझसे ज्यादा से ज्यादा मेडिकल कॉलेज की लाइफ के बारे में जान लेने चाहती थी।
उसे हंसाने के लिए मैं जोकर बना रहता।
हाँ वो अपने घर वालों और पति से डरती बहुत थी इसलिए बहुत धीरे बोलती और वो लोग जैसे ही बुलाते थे वैसे ही भाग कर जाती थी।
एक दिन मैंने पूछ ही लिया- भाभी, बुरा न मानो तो एक बात पूछूं?
उसने मुस्कुरा कर कहा- हाँ, बुरा मान जाऊँगी।
मैंने कहा- तो मैं नहीं पूछूँगा।
उसने कहा- अरे नहीं भई, पूछो न।
‘आप हमेशा उदास सी क्यूँ रहती हैं? मैंने आपको कभी भी आपके घर वालों के साथ खुश नहीं देखा?’
वो बात को टाल गई, उसने कहा- खुश तो हूँ, देखो अभी कितना हंस रही थी।
इसके बाद वो थोड़ा देर और रुकी फिर चली गई।
उसी दिन शाम को मुझे घर जाना था, जन्माष्टमी की छुट्टी थी, मैंने सोचा दो तीन दिन के लिए घर हो आऊँ, मैं बैग लेकर नीचे उतरा और सोचा कि बाबूजी को बता दूँ।
मैंने नीचे के दरवाजे की बेल बजाई, दरवाजा शमी ने खोला।
मैंने कहा- भाभी, मैं घर जा रहा हूँ, दो तीन दिन में आऊँगा।
शमी का चेहरा उदास हो गया, वो बोली- दो दिन या तीन?
मैंने कहा- अच्छा जी, दो दिन!
इतना कहकर मैं घर चला आया लेकिन मेरा मन बिल्कुल नहीं लगा।
घर आने पर मुझे मलेरिया हो गया जिससे मैं 10 दिन तक रुक गया, इस बीच मुझे शमी की बहुत याद आती थी, मुझे लगा कि मैं उससे प्यार करने लगा हूँ, उसका वो गोल प्यारा चेहरा, बड़ी बड़ी आँखे, बार बार याद आते।
मैं अकेले में उसके विरह में खूब रोता।
आखिर वो घड़ी आ गई जब मैं ठीक होकर कानपुर पहुँचा, मैंने धड़कते दिल के साथ घण्टी बजाई, मैंने मन ही मन प्रार्थना की कि शमी ही दरवाजा खोले, लेकिन दरवाजा आंटी जी ने खोला।
वे बोली- आओ बेटा, बहुत दिन रुक गए?
मैंने कहा- हाँ आंटी, मलेरिया हो गया था।
मेरी आँखें उस वक्त शमी को ही ढूंढ रहीं थीं लेकिन वो नहीं दिखी।
कहानी जारी रहेगी।
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