विदुषी की विनिमय-लीला-2
लेखक : लीलाधर
धीरे-धीरे यह बात हमारी रतिक्रिया के प्रसंगों में रिसने लगी। मुझे चूमते हुए कहते, सोचो कि कोई दूसरा चूम रहा है। मेरे स्तनों, योनिप्रदेश से खेलते मुझे दूसरे पुरुष का ख्याल कराते। उस अनय नामक किसी दूसरी के पति का नाम लेते, जिससे इनका चिट्ठी संदेश वगैरह का लेना देना चल रहा था।
अब उत्तेजना तो हो ही जाती है, भले ही बुरा लगता हो।
मैं डाँटती, उनसे बदन छुड़ा लेती, पर अंतत: उत्तेजना मुझे जीत लेती। बुरा लगता कि शरीर से इतनी लाचार क्यों हो जाती हूँ।
कभी कभी उनकी बातों पर विश्वास करने का जी करता। सचमुच इसमें कहाँ धोखा है। सब कुछ तो एक-दूसरे के सामने खुला है। और यह अकेले अकेले लेने का स्वार्थी सुख तो नहीं है, इसमें तो दोनों को सुख लेना है।
पर दाम्पत्य जीवन की पारस्परिक निष्ठा इसमें कहाँ है?
तर्क-वितर्क, परम्परा से मिले संस्कारों, सुख की लालसा, वर्जित को करने का रोमांच, कितने ही तरह के स्त्री-मन के भय, गृहस्थी की आशंकाएँ आदि के बीच मैं डोलती रहती।
पता नहीं कब कैसे मेरे मन में ये अपनी इच्छा का बीज बोने में सफल हो गए। पता नहीं कब कैसे यह बात स्वीकार्य लगने लगी। बस एक ही इच्छा समझ में आती। मुझे इनको सुखी देखना है। ये बार बार विवशता प्रकट करते। “अब क्या करूँ, मेरा मन ही ऐसा है। मैं औरों से अलग हूँ, पर बेइमान या धोखेबाज नहीं। और मैं इसे गलत मान भी नहीं पाता। यह चीज हमारे बीच प्रेम को और बढ़ाएगी।!”
एक बार इन्होंने बढ़कर कह ही दिया,” मैं तुम्हें किसी दूसरे पुरुष की बाहों में कराहता, सिसकारियाँ भरता देखूँ तो मुझसे बढ़कर सुखी कौन होगा?”
मैं रूठने लगी।
इन्होंने मजाक किया,”मैं बतलाता हूँ कौन ज्यादा सुखी होगा ! वो होगी तुम !”
“जाओ… !” मैंने गुस्से में भरकर इनकी बाँहों को छुड़ाने के लिए जोर लगा दिया।
पर इन्होंने मुझे जकड़े रखा। इनका लिंग मेरी योनि के आसपास ही घूम रहा था, उसे इन्होंने अंदर भेजते हुए कहा,”मेरा तो पाँच ही इंच का है, उसका तो पूरा … ”
मैंने उनके मुँह पर मुँह जमाकर बोलने से रोकना चाहा पर…
“सात इंच का है।” कहते हुए वे आवेश में आ गए, धक्के लगाने लगे।
हांफते हुए उन्होंने जोड़ा,” पूरा अंदर तक मार करेगा, साला।”
कहते हुए वे पागल होकर जोर जोर से धक्के लगाते हुए स्खलित हो गए। मैं इनके इस हमले से बौखला उठी। जैसे तेज नशे की कोई गैस दिमाग में घुसी और मुझे बेकाबू कर गई।
‘ओह’.. से तुरंत ‘आ..ऽ..ऽ..ऽ..ऽ..ह’ का सफर ! मेरे अंदर भरते इनके गर्म लावे के तुरंत बाद ही मैं भी किसी मशीनगन की तरह तड़ तड़ छूट रही थी। मैंने जाना कि शरीर की अपनी मांग होती है, वह किसी नैतिकता, संस्कार, तर्क कुतर्क की नहीं सुनता।
उत्तेजना के तप्त क्षणों में उसका एक ही लक्ष्य होता है– चरम सुख।
धीरे धीरे यह बात टालने की सीमा से आगे बढ़ती गई। लगने लगा कि यह चीज कभी किसी न किसी रूप में आना ही चाहती है। बस मैं बच रही हूँ। लेकिन पता नहीं कब तक।
इनकी बातों में इसरार बढ़ रहा था। बिस्तर पर हमारी प्रेमक्रीड़ा में मुझे चूमते, मेरे बालों को सहलाते, मेरे स्तनों से खेलते हुए, पेट पर चूमते हुए, बाँहों, कमर से बढ़ते अंतत: योनि की विभाजक रेखा को जीभ से टटोलते, चूमते हुए बार बार ‘कोई और कर रहा है !’ की याद दिलाते। खासकर योनि और जीभ का संगम, जो मुझे बहुत ही प्रिय है, उस वक्त तो उनकी किसी बात का विरोध मैं कर ही नहीं पाती। बस उनके जीभ पर सवार वो जिधर चलाए ले जाते जाते मैं चलती चली जाती। उस संधि रेखा पर एक चुम्बन और ‘कितना स्वादिष्ट’ के साथ ‘वो तो इसकी गंध से ही मदहोश हो जाएगा !’ की प्रशंसा, या फिर जीभ से अंदर की एक गहरी चाट लेकर ‘कितना भाग्यशाली होगा वो !’
मैं सचमुच उस वक्त किसी बिना चेहरे के ‘वो’ की कल्पना कर उत्तेजित हो जाती। वो मेरे नितम्बों की थरथराहटों, भगनासा के बिन्दु के तनाव से भाँप जाते। अंकुर को जीभ की नोक से चोट देकर कहते- ‘तुम्हें इस वक्त दो और चाहिए जो इनका (चूचुकों को पकड़कर) ध्यान रख सके। मैं उन दोनों को यहाँ पर लगा दूँगा।’
बाप रे… तीनों जगहों पर एक साथ ! मैं तो मर ही जाऊँगी !
मैं स्वयं के बारे में सोचती थी – कैसे शुरू में सोच में भी भयावह लगने वाली बात धीरे धीरे सहने योग्य हो गई थी। अब तो उसके जिक्र से मेरी उत्तेजना में संकोच भी घट गया था। इसकी चर्चा जैसे जैसे बढ़ती जा रही थी मुझे दूसरी चिंता सताने लगी थी। क्या होगा अगर इन्होंने एक बार ले लिया यह सुख। क्या हमारे स्वयं के बीच दरार नहीं पड़ जाएगी? बार-बार करने की इच्छा नहीं होगी? लत नहीं लग जाएगी?
अपने पर भी कभी कभी डर लगता, कहीं मैं ही न इसे चाहने लगूँ। मैंने एक दिन इनसे झगड़े में कह भी दिया,”देख लेना, एक बार हिचक टूट गई तो मैं ही न इसमें बढ़ जाऊँ ! मुझे देने वाले सैंकड़ों मिलेंगे।”
उन्होंने डरने के बजाए उस बात को तुरन्त लपक लिया,”वो मेरे लिए बेहद खुशी का दिन होगा। तुम खुद चाहो, यह तो मैं कब से चाहता हूँ।”
फिर मजाक किया,”तुम्हारे लिए मर्दों की लाइन लगा दूँगा।”
मैंने तिलमिलाकर व्यंग्य किया,”और तुम क्या करोगे, मेरी दलाली?”
“गुस्सा मत करो ! मैंने तो मजाक किया। हम क्या नहीं देखेंगे कि बात हद से बारह न निकले? हम कोई बच्चे तो नहीं हैं। जो कुछ भी करेंगे, सोच समझकर और नियंत्रण के साथ !”
नियंत्रण के साथ अनियंत्रित होने का खेल। कैसी विचित्र बात !
अब मैं विरोध कम ही कर रही थी। बीच-बीच में कुछ इस तरह से वार्तालाप हो जाती मानों हम यह करने वाले हों और आगे उसमें क्या क्या कैसे कैसे करेंगे इस पर विचार कर रहे हों।
पर मैं अभी भी संदेह और अनिश्चय में थी। गृहस्थी दाम्पत्य-स्नेह पर टिकी रहती है, कहीं उसमें दरार न पड़ जाए। पति-पत्नी अगर शरीर से ही वफादार न रहे तो फिर कौन सी चीज उन्हें अलग होने से रोक सकती है?
एक दिन हमने एक ब्लू फिल्म देखी जिसमें पत्नियों प्रेमिकाओं की धड़ल्ले से अदला-बदली दिखाई जा रही थी। सारी क्रिया के दौरान और उसके बाद जोड़े बेहद खुश दिख रहे थे। उसमें सेक्स कर रहे मर्दों के बड़े बड़े लिंग देखकर ‘इनके’ कथन ‘उसका तो सात इंच का है।’ की याद आ रही थी।
संदीप के औसत साइज के पांच इंच की अपेक्षा उस सात इंच के लिंग की कल्पना को दृश्य रूप में घमासान करते देखकर मैं बेहद गर्म हो गई थी। मैंने जीवन में पति के सिवा किसी और के साथ किया नहीं था। यह वर्जित दृश्य मुझे हिला गया था। उस रात हमारे बीच बेहद गर्म क्रीड़ा चली। फिल्म के खत्म होने से पहले ही मैं आतुर हो गई थी। मेरी साँसें गर्म और तेज हो गई थीं, जबकि संदीप खोए-से उस दृश्य को देख रहे थे, संभवत: कल्पना में उन औरतों में कहीं पर मुझे रखते हुए।
मैंने उन्हें खींचकर अपने से लगा लिया था। संभोग क्रिया के शुरू होते न होते मैं उनके चुम्बनों से ही मंद-मंद स्खलित होना शुरू हो गई थी। लिंग-प्रवेश के कुछ क्षणों के बाद तो मेरे सीत्कारों और कराहटों से कमरा गूंज रहा था, मैं खुद को रोकने की कोशिश कर रही थी कि आवाज बाहर न चली जाए।
सुनकर उनका उत्साह दुगुना हो गया था। उस रात हम तीन बार संभोगरत हुए। संदीप ने कटाक्ष भी किया कि,”कहती तो हो कि नहीं चाहते हैं, और यह क्या है?”
उस रात के बाद मैंने प्रकट में आने का फैसला कर लिया। संदीप को कह दिया– ‘सिर्फ एक बार ! वह भी सिर्फ तुम्हारी खातिर। केवल आजमाने के लिए। मैं इन चीजों में नहीं पड़ना चाहती।’
मेरे स्वर में स्वीकृति की अपेक्षा चेतावनी थी।
उस दिन के बाद से वे जोर-शोर से अनय-शीला के अलावा किसी और उपयुक्त दम्पति के तलाश में जुट गए। ऑर्कुट, फेसबुक, एडल्टफ्रेंडफाइ… न जाने कौन कौन सी साइटें। उन दंपतियों से होने वाली बातों की चर्चा सुनकर मेरा चेहरा तन जाता, वे मेरा डर और चिंता दूर करने की कोशिश करते,”मेरी कई दंपतियों से बात होती है। वे कहते हैं वे इस तजुर्बे के बाद बेहद खुश हैं। उनके सेक्स जीवन में नया उत्साह आ गया है। जिनका तजुर्बा अच्छा नहीं रहा उनमें ज्यादातर अच्छा युगल नहीं मिलने के कारण असंतुष्ट हैं।
मेरे एक बड़े डर कि ‘दूसरी औरत के साथ उनको देखकर मुझे ईर्ष्या नहीं होगी?’ वे कहते ‘जिनमें आपस में ईर्ष्या होती है वे इस जीवन शैली में ज्यादा देर नहीं ठहरते, इसको एक समस्या बनने देने से पहले ही बाहर निकल जाते हैं। ऐसा हम भी कर सकते हैं।’
मैं चेताती- ‘समस्या बने न बने, सिर्फ एक बार… बस।’
उसी दंपति अनय-शीला से सबसे ज्यादा बातें चैटिंग वगैरह हो रही थी। सब कुछ से तसल्ली होने के बाद उन्होंने उनसे मेरी बात कराई। औरत कुछ संकोची-सी लगी, पर पुरुष परिपक्व तरीके से संकोचहीन।
मैं कम ही बोली, उसी ने ज्यादा बात की, थोड़े बड़प्पन के भाव के साथ। मुझे वह ‘तुम’ कहकर बुला रहा था। मुझे यह अच्छा लगा। मैं चाहती थी कि वही पहल करने वाला आदमी हो। मैं तो संकोच में रहूँगी। उसकी पत्नी से बात करते समय संदीप अपेक्षाकृत संयमित थे। शायद मेरी मौजूदगी के कारण। मैंने सोचा अगली बार से उनकी बातचीत के दौरान मैं वहाँ से हँट जाऊँगी।
उनकी तस्वीरें अच्छी थीं। अनय अपनी पत्नी की अपेक्षा देखने में चुस्त और स्मार्ट था और उससे काफी लम्बा भी। मैं अपनी लंबाई और बेहतर रंग-रूप के कारण उसके लिए शीला से कहीं बेहतर जोड़ी दिख रही थी।
संदीप ने इस बात को लेकर मुझे छेड़ा भी- ‘क्या बात है भई, तुम्हारा लक तो बढ़िया है !’
मिलने के प्रश्न पर मैं चाहती थी पहले दोनों दंपति किसी सार्वजनिक जगह में मिलकर फ्री हो लें। अनय को कोई एतराज नहीं था पर उन्होंने जोड़ा,” पब्लिक प्लेस में क्यों, हमारे घर ही आ जाइये। यहीं हम ‘सिर्फ दोस्त के रूप में’ मिल लेंगे।”
‘सिर्फ दोस्त के रूप में’ को वह थोड़ा अलग से हँसकर बोला। मुझे स्वयं अपना विश्वास डोलता हुआ लगा– क्या वास्तव में मिलना केवल फ्रेंडली तक रहेगा? उससे आगे की संभावनाएँ डराने लगीं…
पढ़ते रहिएगा !
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