धोबी घाट पर माँ और मैं-3
सुबह की पहली किरण के साथ जब मेरी नींद खुली तो देखा कि एक तरफ बापू अभी भी लुढ़का हुआ है और माँ शायद पहले ही उठ कर जा चुकी थी।
मैं भी जल्दी से नीचे पहुँचा तो देखा कि माँ बाथरुम से आकर हेन्डपम्प पर अपने हाथ-पैर धो रही थी, मुझे देखते ही बोली- चल जल्दी से तैयार हो जा, मैं खाना बना लेती हूँ, फिर जल्दी से नदी पर निकल जायेंगे, तेरे बापू को भी आज शहर जाना है बीज लाने, मैं उसको भी उठा देती हूँ।
थोड़ी देर में जब मैं वापस आया तो देखा कि बापू भी उठ चुका था और वो बाथरूम जाने की तैयारी में था। मैं भी अपने काम में लग
गया और सारे कपड़ों के गट्ठर बना के तैयार कर दिया।
थोड़ी देर में हम सब लोग तैयार हो गये, घर को ताला लगाने के बाद बापू बस पकड़ने के लिये चल दिया और हम दोनों नदी की ओर!
मैंने माँ से पूछा- बापू कब तक आएँगे?
तो वो बोली- क्या पता, कब आयेगा? मुझे तो बोला है कि कल आ जाऊँगा, पर कोई भरोसा है तेरे बापू का? चार दिन भी लगा देगा।
हम लोग नदी पर पहुंच गये और फिर अपने काम में लग गये, कपड़ों की सफाई के बाद मैंने उन्हें एक तरफ सूखने के लिये डाल दिये
और फिर हम दोनों ने नहाने की तैयारी शुरु कर दी।
माँ ने भी अपनी साड़ी उतार कर पहले उसको धोया फिर हर बार की तरह अपने पेटिकोट को ऊपर चढ़ा कर अपना ब्लाउज़ निकाला, फिर उसको धोया और फिर अपने बदन को रगड़ रगड़ कर नहाने लगी।
मैं भी बगल में बैठा उसको निहारते हुए नहाता रहा।
बेख्याली में एक दो बार तो मेरी लुंगी भी मेरे बदन पर से हट गई थी पर अब तो ये बहुत बार हो चुका था इसलिये मैंने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया।
हर बार की तरह माँ ने भी अपने हाथों को पेटिकोट के अन्दर डाल कर खूब रगड़ रगड़ कर नहाना चालू रखा।
थोड़ी देर बाद मैं नदी में उतर गया।
माँ ने भी नदी में उतर के एक दो डुबकियां लगाई और फिर हम दोनों बाहर आ गये।
मैंने अपने कपड़े बदल लिये और पजामा और कुर्ता पहन लिया।
माँ ने भी पहले अपने बदन को तौलिये से सुखाया, फिर अपने पेटिकोट के इजारबंध को जिसको वो छाती पर बांध कर रखती थी, पर से खोल लिया और अपने दांतों से पेटिकोट को पकड़ लिया, यह उसका हमेशा का काम था, मैं उसको पत्थर पर बैठ कर एक-टक देखे जा रहा था।
इस प्रकार उसके दोनों हाथ फ्री हो गये थे।
अब सूखे ब्लाउज़ को पहनने के लिये पहले उसने अपना बांया हाथ उसमें घुसाया, फिर जैसे ही वो अपना दाहिना हाथ ब्लाउज़ में घुसाने जा रही थी कि पता नहीं क्या हुआ, उसके दांतों से उसका पेटिकोट छुट गया और सीधे सरसराते हुए नीचे गिर गया।और उसका पूरा का पूरा नंगा बदन एक पल के लिये मेरी आंखों के सामने दिखने लगा।
उसकी बड़ी-बड़ी चूचियाँ जिन्हे मैंने अब तक कपड़ों के ऊपर से ही देखा था, उसके भारी भारी चूतड़ उसकी मोटी-मोटी जांघें और झांट के बाल सब एक पल के लिये मेरी आंखों के सामने नंगे हो गये।
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पेटिकोट के नीचे गिरते ही उसके साथ ही माँ भी हय करते हुई तेजी के साथ नीचे बैठ गई। मैं आंखें फाड़-फाड़ के देखते हुए गूंगे की तरह वहीं पर खड़ा रह गया।
माँ नीचे बैठ कर अपने पेटिकोट को फिर से समेटती हुई बोली- ध्यान ही नहीं रहा। मैं तुझे कुछ बोलना चाहती थी और यह पेटिकोट दांतों से छुट गया।
मैं कुछ नहीं बोला।
माँ फिर से खड़ी हो गई और अपने ब्लाउज़ को पहनने लगी। फिर उसने अपने पेटिकोट को नीचे किया और बांध लिया, फिर साड़ी पहन कर वो वहीं बैठ के अपने भीगे पेटिकोट को धो करके तैयार हो गई।
फिर हम दोनों खाना खाने लगे, खाना खाने के बाद हम वहीं पेड़ की छांव में बैठ कर आराम करने लगे।
जगह सुनसान थी, ठंडी हवा बह रही थी, मैं पेड़ के नीचे लेटे हुए माँ की तरफ घूमा तो वो भी मेरी तरफ घूमी।
इस वक्त उसके चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कुराहट पसरी हुई थी।
मैंने पूछा- माँ, क्यों हंस रही हो?
तो वो बोली- मैं कहाँ हंस रही हूँ?
‘झूठ मत बोलो, तुम मुस्कुरा रही हो।’
‘क्या करूँ? अब हंसने पर भी कोई रोक है क्या?’
‘नहीं, मैं तो ऐसे ही पूछ रहा था। नहीं बताना है तो मत बताओ।’
‘अरे, इतनी अच्छी ठंडी हवा बह रही है, चेहरे पर तो मुस्कान आयेगी ही।’
‘हाँ, आज गरम स्त्री (औरत) की सारी गरमी जो निकल जायेगी।’
‘क्या मतलब, इस्तरी (आयरन) की गरमी कैसे निकल जायेगी? यहाँ पर तो कहीं इस्तरी नहीं है।’
‘अरे माँ, तुम भी तो स्त्री (औरत) हो, मेरा मतलब इस्तरी माने औरत से था।’
‘चल हट बदमाश, बड़ा शैतान हो गया है। मुझे क्या पता था कि तू इस्तरी माने औरत की बात कर रहा है?’
‘चलो, अब पता चल गया ना?’
‘हाँ, चल गया। पर सच में यहाँ पेड़ की छांव में कितना अच्छा लग रहा है। ठंडी-ठंडी हवा चल रही है और आज तो मैं पूरी हवा खा ही
चुकी हूँ।’ माँ बोली।
‘पूरी हवा खा चुकी है, वो कैसे?’
‘मैं पूरी नन्गी जो हो गई थी।’
फिर बोली- हाय, तुझे मुझे ऐसे नहीं देखना चाहिए था?
‘क्यों नहीं देखना चाहिए था?’
‘अरे बेवकूफ, इतना भी नहीं समझता, एक माँ को उसके बेटे के सामने नंगा नहीं होना चाहिए था।’
‘कहाँ नंगी हुई थी, तुम? बस एक सेकन्ड के लिये तो तुम्हारा पेटिकोट नीचे गिर गया था।’
हालांकि, वही एक सेकन्ड मुझे एक घन्टे के बराबर लग रहा था।
‘हाँ, फिर भी मुझे नंगी नहीं होना चाहिए था। कोई जानेगा तो क्या कहेगा कि मैं अपने बेटे के सामने नन्गी हो गई थी।’
‘कौन जानेगा? यहाँ पर तो कोई था भी नहीं। तू बेकार में क्यों परेशान हो रही है?’
‘अरे नहीं, फिर भी कोई जान गया तो।’
फिर कुछ सोचती हुई बोली- अगर कोई नहीं जानेगा तो क्या तू मुझे नंगी देखेगा?
मैं और माँ दोनों एक दूसरे के आमने-सामने एक सूखी चादर पर सुनसान जगह पर पेड़ के नीचे एक दूसरे की ओर मुंह करके लेटे हुए थे और माँ की साड़ी उसके छाती पर से ढलक गई थी।
माँ के मुंह से यह बात सुन कर मैं खामोश रह गया और मेरी सांसें तेज चलने लगी।
माँ ने मेरी ओर देखते हुए पूछा- क्या हुआ?
मैंने कोई जवाब नहीं दिया और हल्के से मुस्कुराते हुए उसकी छातियों की तरफ देखने लगा जो उसकी तेज चलती सांसों के साथ ऊपर नीचे हो रही थी।
वो मेरी तरफ देखते हुए बोली- क्या हुआ? मेरी बात का जवाब दे ना। अगर कोई जानेगा नहीं तो क्या तू मुझे नंगी देख लेगा?
इस पर मेरे मुंह से कुछ नहीं निकला और मैंने अपना सिर नीचे कर लिया, माँ ने मेरी ठुड्डी पकड़ कर ऊपर उठाते हुए मेरी आँखों
में झांकते हुए पूछा- क्या हुआ रे? बोल ना, क्या तू मुझे नंगी देख लेगा, जैसे तूने आज देखा है?
मैंने कहा- हाय माँ, मैं क्या बोलूँ?
मेरा तो गला सूख रहा था, माँ ने मेरे हाथ को अपने हाथों में ले लिया और कहा- इसका मतलब तू मुझे नंगी नहीं देख सकता, है ना?
मेरे मुंह से निकल गया- हाय माँ, छोड़ो ना!
मैं हकलाते हुए बोला- नहीं माँ, ऐसा नहीं है।
‘तो फिर क्या है? तू अपनी माँ को नंगी देख लेगा क्या?’
‘हाय, मैं क्या कर सकता था? वो तो तुम्हारा पेटिकोट नीचे गिर गया, तब मुझे नंगा दिख गया। नहीं तो मैं कैसे देख पाता?’
‘वो तो मैं समझ गई, पर उस वक्त तुझे देख कर मुझे ऐसा लगा, जैसे कि तू मुझे घूर रहा है… इसलिये पूछा।’
‘हाय माँ, ऐसा नहीं है। मैंने तुम्हें बताया ना, तुम्हें बस ऐसा लगा होगा।’
‘इसका मतलब तुझे अच्छा नहीं लगा था ना?’
‘हाय माँ, छोड़ो…’ मैं हाथ छुड़ाते हुए अपने चेहरे को छुपाते हुए बोला।
माँ ने मेरा हाथ नहीं छोड़ा और बोली- सच सच बोल, शरमाता क्यों है?
मेरे मुंह से निकल गया- हाँ, अच्छा लगा था।
कहानी जारी रहेगी।
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